गांव-गांव में लगे बिं माता के जागर, विधाता की पूजा-अर्चना

केदारघाटी की अनूठी परंपरा और संस्कृति
गुप्तकाशी, 25 मार्च (हि.स.)। उत्तराखंड की केदार घाटी में वसंत के स्वागत की अनूठी परम्परा सदियों से अनवरत जारी है। विधाता को इंगित करती बिं माता के कौथीग के अंतर्गत देवशाल गांव के ग्रामीणों ने परंपरागत पूजा, अर्चना और पौराणिक जागरों को गाकर अपने-अपने घरों में संक्रांति तिथि से रोपे गए जौं की हरियाली का भाव भक्ति से विसर्जित किया है। इस दौरान गांव के कई लाेग मौजूद रहे। विधाता कौथीग पूर्व काल में चार गांवों में मनाया जाता था, लेकिन पलायन की मार और दूसरे अन्य कारणों से इस परम्परा में कुछ गतिरोध भी नजर आने लगे हैं। कमोबेश कुछ अन्य गांव में भी थोड़ा बहुत इस उत्सव को मनाया जा रहा है।
एक ओर सुबह सवेरे छोटे बच्चों द्वारा घर की देहरी पर फूल डालने के पर्व फूलदेई के साथ चैत्र संक्रांति से वसंत का स्वागत किया जाता है तो चुनिंदा गांवों में सायंकाल बीं माता यानी विधाता की पूजा का अनुष्ठान जागर के रूप में होता है। विश्व के किसी अन्य भू भाग में यह परम्परा नहीं है। चार गांवों की परम्परा में आ रहा गतिरोध केदारघाटी के चार गांव अंद्रवाडी, देवशाल, रविग्राम और भटवाड़ी में बीं माता के जागरण का अनुष्ठान धन धान्य, सुख समृद्धि और एक तरह से पुत्रेष्ठि यज्ञ के रूप में होता रहा है लेकिन तेजी से हो रहे पलायन और कुछ अन्य कारणों के चलते हाल के कुछ वर्षों में इस परम्परा को आघात पहुंचा है। सबसे पहले भटवाड़ी गांव में इस परम्परा पर एक तरह से विराम लगा, उसके बाद देवशाल में जागर की परम्परा थम सी गई।
फिलवक्त यह परम्परा हर तीसरे वर्ष अंद्रवाडी में अनवरत रूप से चली आ रही है। इससे पहले रविग्राम में कभी कोई श्रद्धावान आयोजन कर लेता है तो जागर लगाए जाते हैं ,अन्यथा समस्त परिवारों द्वारा अपने - अपने घरों में हरियाली बोई जाती है और करीब एक पखवाड़े बाद शुभ मुहूर्त में पंचायती चौक में एकत्र होने के बाद स्वस्ति वाचन और वैदिक मंत्रों के साथ पारंपरिक शोभा यात्रा के रूप में जाकर जलधारा के पास विसर्जन किया जाता है। परम्परा निभाने के लिए यह एक संक्षिप्त अनुष्ठान हो गया है। देवशाल में भी कमोबेश यही स्वरूप अंगीकृत कर लिया गया है लेकिन अंद्रवाडी में अभी यह परम्परा अटूट है। इस लिहाज से यह अनुष्ठान संपूर्णता के साथ अंद्रवाडी में ही आयोजित हो रहा है।
श्रुति परम्परा का यह अनुष्ठान एक कंठ से दूसरे कंठ में पीढ़ियों से हस्तांतरित होता आ रहा है ,लेकिन आज के बदलते दौर को देखते हुए एक खतरा सता रहा है कि नई पीढ़ी ने इसे अंगीकृत नहीं किया तो देवशाल और भटवाड़ी जैसा हस्र हो सकता है। रविग्राम में इस बार 26 मार्च और अंद्रवाडी में 28 मार्च को बीं माता का विसर्जन होगा, जबकि देवशाल में 24 मार्च को विसर्जन हो गया है।
उधर रविग्राम में दो वृद्ध महिलाएं शकुंतला और राधा देवी को अभी तक बीं माता के जागर के सभी प्रसंग कंठस्थ हैं लेकिन उनके बाद क्या होगा, यह चिंतनीय विषय है। अंद्रवाडी में अभी यह खतरा नजर नहीं आता। अंद्रवाडी गांव के निवासी और इस संस्कृति को अक्षुण्ण रखने की दिशा में कार्य कर रहे दिनेश सेमवाल शास्त्री ने बताया कि बी माता यानी विधाता लोक परम्परा का एक विलक्षण अवसर है। यह आदि शक्ति की स्तुति का उत्सव है तो एक दृष्टि से नंदा महोत्सव भी है। इसमें सृष्टि उत्पत्ति से लेकर पांडवों के स्वर्गारोहण तक के समस्त प्रसंग निहित हैं। पूरे कथानक के केंद्र में आदि शक्ति के साथ कृष्ण हैं तो महाभारत के प्रसंग भी समाहित होते हैं। कहा जाए तो सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त ज्यादातर यह द्वापर युग के इर्द गिर्द का कथानक है।
हर पुराण की शुरुआत जिस तरह शिव पार्वती संवाद से होती है तो बीं माता के जागर में भी शिव पार्वती को पर्याप्त महत्व दिया जाता है, साथ ही शिव पार्वती विवाह का प्रसंग भी एक अलग महत्व का कथानक है। एक समापन पार्वती की कैलाश विदाई के रूप में होती है। इसके लिए बीं माता और उनकी सहेली के स्वरूप को सजा कर हरियाली की चौकी के ऊपर स्थापित कर पूरी शोभा यात्रा के साथ विदाई दी जाती है।
हिन्दुस्थान समाचार / बिपिन