साहित्य के शिखर पुरुष प्रेमचंद की कहानियां आज भी प्रासंगिक

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साहित्य के शिखर पुरुष प्रेमचंद की कहानियां आज भी प्रासंगिक


-इविवि के बरगद कलामंच ने ‘दूध का दाम’ की प्रस्तुति से किया समाज की कुरीतियों पर प्रहार

प्रयागराज, 21 मार्च (हि.स.)। साहित्य के शिखर पुरुष प्रेमचंद की कहानियां आज भी प्रासंगिक हैं। दशकों पहले उन्होंने जिन मुद्दों पर कलम चलाई थी, उसकी अनुभूति आज की पीढ़ी कर रही है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तिलक भवन में जब प्रेमचंद की कहानी ‘दूध का दाम’ का मंचन हुआ तो कहानी के पात्र मानो जीवित हो गए। समाज की जिन कुरीतियों को प्रेमचन्द ने अपनी कहानी में लिखा उन्हीं कुरीतियों को कलाकारों द्वारा दिखाया गया।

लोग कहते हैं दूध का दाम कोई नहीं चुका सकता और मुझे दूध का यह दाम मिल रहा है। मंगल ने जब विलाप करते हुए ये संवाद बोले तो दर्शक अपने आप को रोने से रोक नहीं पाए। अवसर था हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शताब्दी वर्ष के क्रम में स्वामी दयानंद द्विशताब्दी स्मरण विषय पर आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी का। प्रेमचंद की चर्चित कहानी ’दूध का दाम’ का नाट्य मंचन कर रहा था बरगद कलामंच।

पति-पत्नी के लगाव और अटूट विश्वास को एक तरफ इस कहानी में दर्शाया गया। वहींं गरीबी-अमीरी तथा समाज के भेदभाव को कहानी में दिखाया गया। नाटक के आरंभ में प्रसव के समय की चिंता के दृश्य से होती है। ये दृश्य सहजता में बहुत कुछ कह जाता है। कहानी में समाज के दो दृश्य अत्यंत महत्वपूर्ण दिखाई दिए जो मूल कहानी में समाज की सच्चाई को भी दिखाते हैं। बाल विवाह के एक दृश्य सभी को रुला जाता है। बिटिया जब बाप से रोते हुए कहती है कि बापू उम्र में वो आपसे भी बड़े हैं, संवाद सोचने पर मजबूर कर जाता है।

ज़मीदार के यहाँ जब नामकरण संस्कार के लिए पंडितजी को बुलाया गया तो वो धर्म की व्याख्या करते हुए चंपावती को घर से निकलवा देता है। कड़ी मेहनत के बाद भी चंपावती पर किसी को तरस नहीं आता है। अंत में महामारी में उसका पति और सफाई करते हुए चंपावती छोटे बच्चे को छोड़ कर मर जाती है। मूल कहानी में समाज के यथार्थ को उजागर किया गया है। प्रेमचंद के समकालीन समाज में प्रखर रूप से जाति-पाति, वर्गों का भेदभाव था। उस समय में ब्राह्मणों का आदर सत्कार था। बाहरी रूप से दिखावा करते थे पर आंतरिक रूप से धर्म संस्कार के नाम पर निम्न जातियों पर शोषण करते थे।

संगीत पक्ष पूरी तरह से कहानी के साथ चलता है। नाटक के आरंभ में जब होली गीत गाया जाता है तो लोक उसमें दिखता है। दूसरा गीत सोहर के रूप में दृश्य के साथ सटीक बैठता है। एक अन्य दृश्य में जब मंगल अकेला रह जाता है तो मां मां..मार्मिक गीत सभी को रुला देता है। वेशभूषा वस्त्र विन्यास अनन्या, वर्षा, आशुतोष द्वारा, मंच सज्जा दीपिका, आशा, मनीषा, प्रचार-प्रसार एवं लाइटिंग आदि बरगद कलामंच के विद्यार्थयों का रहा। कहानी का नाट्य रूपांतरण और निर्देशन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अनुवाद अधिकारी हरिओम कुमार ने किया तथा विशेष सहयोग एवं प्रबंधन प्रवीण श्रीवास्तव, हिंदी अधिकारी एवं मार्गदर्शन प्रो. योगेंद्र प्रताप सिंह, समन्वयक राजभाषा कार्यान्वयन समिति का रहा।

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हिन्दुस्थान समाचार / विद्याकांत मिश्र

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