नदियां प्राचीन सभ्यताओं, सांस्कृतिक परम्पराओं एवं आर्थिक जीवन का मूल आधार

WhatsApp Channel Join Now
नदियां प्राचीन सभ्यताओं, सांस्कृतिक परम्पराओं एवं आर्थिक जीवन का मूल आधार


--इविवि में “भारत की नदियांः इतिहास, संस्कृति और संरक्षण की चुनौतियां एवं समाधान“ पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन

प्रयागराज, 28 मार्च (हि.स.)। भारत की नदियां केवल जल स्रोत नहीं हैं, बल्कि वे प्राचीन सभ्यताओं, सांस्कृतिक परम्पराओं और आर्थिक जीवन के मूल आधार भी रही हैं। लेकिन वर्तमान में जलवायु परिवर्तन, अनियंत्रित शहरीकरण, औद्योगिकी करण और अनियोजित विकास के कारण इनका अस्तित्व संकट में है। इन चुनौतियों को समझने और समाधान तलाशने के उद्देश्य से संगोष्ठी के दूसरे दिन भी देश भर से प्रतिष्ठित इतिहासकारों, पुरातत्वविदों, पर्यावरणविदों, भूगोलविदों, तकनीकी विशेषज्ञों, शोधार्थियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग की ओर से “भारत की नदियांः इतिहास, संस्कृति और संरक्षण की चुनौतियां एवं समाधान“ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन हुआ। राष्ट्रीय जल पुरस्कार से सम्मानित भारतीय नदी परिषद के अध्यक्ष रमन कांत और नाम फाउंडेशन, पुणे के गणेश तांजीराव थोरात ने नदी संरक्षण के क्षेत्र में अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने बताया कि किसी भी नदी को पुनर्जीवित करने के लिए केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि इसमें स्थानीय समुदायों की भागीदारी भी आवश्यक है। सामुदायिक सहभागिता और सरकारी योजनाओं के समन्वय से नदियों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

शुक्रवार के कई तकनीकी सत्रों का आयोजन किया गया। जिनमें विविध विषयों पर शोध प्रस्तुत किए गए। प्रो. राहुल पटेल ने इस बात पर बल दिया कि भारत में जल प्रबंधन की परंपराएं बहुत पुरानी हैं और प्राचीन समय में समाज ने नदियों के संरक्षण के लिए जो तकनीकें विकसित की थीं, वे आज भी प्रासंगिक हो सकती हैं। उन्होंने स्थानीय और आदिवासी समुदायों की ओर से अपनाई गई पारम्परिक जल संरक्षण प्रणालियों की सराहना करते हुए उन्हें धारणीय विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) के लिए आवश्यक बताया।

नॉर्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रो. प्रभाशंकर शुक्ला ने नदी संरक्षण में सामुदायिक सहभागिता की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया। कहा कि जल संकट और नदियों के प्रदूषण की समस्या को केवल सरकारी प्रयासों से हल नहीं किया जा सकता, बल्कि इसमें समाज की सक्रिय भागीदारी भी आवश्यक है। उन्होंने उत्तर-पूर्व भारत में चेरापूंजी क्षेत्र की नदियों के संरक्षण में किए गए सामुदायिक प्रयासों का उल्लेख किया। आईआईटी कानपुर के प्रो. तारे ने अपने शोध के आधार पर यह बताया कि वैज्ञानिक तकनीकों और नवीन विधियों का उपयोग कर जल स्वच्छता को बेहतर बनाया जा सकता है। बंजर भूमि को भी पुनः उपजाऊ बनाया जा सकता है। उन्होंने विशेष रूप से जल शोध (वाटर प्यूरीफिकेशन) तकनीकों और बायो-रिमेडिएशन प्रक्रियाओं पर प्रकाश डाला, जो नदियों की सफाई और पुनर्जीवन में सहायक हो सकती हैं।

आकाश अवस्थी ने कहा कि भारतीय संस्कृति में नदियां केवल जल धाराएं नहीं हैं, बल्कि वे आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक पहचान से भी जुड़ी हैं। नर्मदा परिक्रमा जैसी परम्पराएं और नदियों की पूजा से जुड़े अनुष्ठान इस बात को दर्शाते हैं कि प्राचीन काल से ही समाज में नदियों का विशेष स्थान रहा है। डॉ. रविंद्र प्रताप सिंह ने नदी जल संरक्षण, भूजल पुनर्भरण और जल प्रबंधन नीतियों में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया। अनिल कुमार गुप्ता ने भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गंगा की स्वच्छता के लिए चलाए जा रहे विभिन्न अभियानों और परियोजनाओं की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि नमामि गंगे योजना और राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से गंगा नदी की सफाई और पुनर्जीवन के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं।

समापन सत्र में कल्पराज सिंह ने कहा कि भारत की नदियां केवल जलस्रोत नहीं, बल्कि वे हमारी सभ्यता, संस्कृति और अर्थव्यवस्था की आधारशिला हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि ऐसे विमर्श केवल अकादमिक चर्चाएं नहीं हैं, बल्कि वे नीति-निर्माण और सामाजिक जागरूकता के लिए भी अत्यंत आवश्यक हैं। इस सत्र की अध्यक्षता प्रो. आनंद शंकर सिंह ने किया। इस अवसर पर प्रो. हर्ष कुमार, प्रो. अनामिका राय, प्रो. प्रकाश सिन्हा और सोनालिका सिंह सहित कई प्रतिष्ठित विद्वान उपस्थित रहे। संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों का संचालन डॉ. सुचित्रा मजूमदार, डॉ. गार्गी चटर्जी और डॉ. पंकज शर्मा ने किया। अंत में, आयोजन सचिव डॉ.अतुल नारायण सिंह ने सभी को धन्यवाद ज्ञापित किया।

---------------

हिन्दुस्थान समाचार / विद्याकांत मिश्र

Share this story

News Hub