हिंदू नव वर्ष से शुरू हुई बेटियों-बहनों को संबल प्रदान करने वाली भिटौली की परंपरा

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हिंदू नव वर्ष से शुरू हुई बेटियों-बहनों को संबल प्रदान करने वाली भिटौली की परंपरा


नैनीताल, 30 मार्च (हि.स.)। उत्तराखंड की सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं में रविवार से हिंदू वर्ष के साथ शुरू हुए चैत्र माह का विशेष महत्व है। इस माह में उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में विशेष रूप से मनायी जाने वाली भिटौली की परंपरा उत्तराखंड में बेटियों और बहनों के रूप में महिलाओं के प्रति प्रेम और स्नेह का प्रतीक है। यह पर्व न केवल पारिवारिक रिश्तों को मजबूत करता है, बल्कि बेटियों और बहनों को संबल प्रदान करता है कि वह मायके के लोग हमेशा उसके साथ हैं। भिटौली के साथ जुड़े लोक गीत व लोक कथाएं भी इस परंपरा की महत्ता को रेखांकित करते हैं।

भिटौली की परंपरा और महत्व

भिटौली उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र का एक पारंपरिक पर्व है, जो चैत्र माह (मार्च-अप्रैल) में मनाया जाता है। यह पर्व नवविवाहित बेटियों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। परंपरा के अनुसार, नवविवाहित बेटी को पहली भिटौली वैशाख माह में दी जाती है, और इसके बाद हर वर्ष चैत्र माह में यह परंपरा निभायी जाती है। इस दौरान माता-पिता अपनी बेटी के ससुराल जाते हैं और उसे नई फसल से घर का बना भोजन, मिठाइयां, कपड़े और अन्य उपहार देते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में यह पर्व परिवार के मिलन का अवसर बनता है, जहां बेटी अपने मायके वालों से मिलकर पुरानी यादें ताजा करती है। शहरी क्षेत्रों में भाई अपनी बहनों को भिटौली के रूप में धनराशि भेजते हैं। यह परंपरा बेटियों को उनके मायके से जोड़े रखने का एक भावनात्मक माध्यम है। पुराने जमाने में जब संचार के साधन नहीं थे, और कम उम्र में बेटियों की शादी कर दी जाती थी तथा वह कम ही मौकों पर अपने मायके आ पाती थीं, इस परंपरा का अत्यधिक महत्व था। भिटौली का सामाजिक महत्व भी गहरा है। यह पर्व उत्तराखंड में समाज की रीढ़ मानी जाने वाली महिलाओं की बड़ी सामाजिक भूमिका, सम्मान, स्नेह व प्रेम को भी रेखांकित करता है। चैत्र माह में नयी फसल के आने का उत्सव भी मनाया जाता है, और भिटौली इस उत्सव का हिस्सा बनकर खुशहाली का संदेश देती है।

‘न्यौली’ चिड़िया और कुमाउनी लोक कथा ‘भै भूखों मैं सिती’

चैत्र माह में भिटौली को लेकर एक लोक कथा भी प्रचलित है, जिसमें एक बहन का छोटा भाई उसकी ससुराल भिटौली लेकर पहुंचता है, किंतु वहां बहन उसे भाई के इंतजार में थक कर सोयी हुई मिलती है। लेकिन चूंकि उसे शाम तक लौटकर अपने घर भी पहुंचना होता है, इसलिये वह बहन को आधी नींद में जागना न पड़े, यह सोचकर बिना बहन को जगाये, बिना मिले भिटौली की सामग्री वहीं छोड़कर लौट आता है। बाद में नींद खुलने पर बहन इस कारण दुःखी होती हुई ‘भै भूखो-मैं सिती’ यानी भाई भूखे ही चला गया और वह सोती रही की रट लगाती हुई अपनी जान गंवा देती है, और ‘न्यौली’ नाम की चिड़िया के रूप में जन्म लेती है, और अब भी चैत्र माह में गांवों में ‘भै भूखो-मैं सिती’ जैसा उच्चारण करती हुई सुनाई देती है।

भिटौली का बदलता स्वरूप

समय के साथ भिटौली की परंपरा में बदलाव देखने को मिला है। अब शहरी क्षेत्रों में यह परंपरा डाक या डिजिटल माध्यम से धनराशि भेजने तक सीमित हो गयी है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा अपने मूल रूप में जीवित है। लेकिन वहां भी आधुनिकीकरण के प्रभाव से इस परंपरा को जीवित रखने की चुनौती बढ़ रही है।

हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. नवीन चन्द्र जोशी

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