संत वही जिसको अपने अस्तित्व का बोध हो : प्रो सूर्य प्रसाद दीक्षित

WhatsApp Channel Join Now
संत वही जिसको अपने अस्तित्व का बोध हो : प्रो सूर्य प्रसाद दीक्षित


-उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान में दो दिवसीय आचार्य परशुराम चतुर्वेदी स्मृति समारोह शुरू

लखनऊ, 25 जुलाई (हि.स.)। आचार्य सूर्य प्रसाद दीक्षित ने मंगलवार को हिन्दी संस्थान में दो दिवसीय आचार्य परशुराम चतुर्वेदी समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि संत वह होता है जिसको अपने अस्तित्व का बोध हो जाय।

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की ओर से आचार्य परशुराम चतुर्वेदी स्मृति समारोह के अवसर पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हिन्दी भवन के निराला सभागार लखनऊ में किया जा रहा है।

इस अवसर पर बोलते हुए डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित ने कहा कि आचार्य जी की उदारता थी कि उन्होंने तुलसीदास जी को संत माना। जिसको अपने अस्तित्व का बोध हो जाता है वह संत हो जाता है। संत शब्द का पहला प्रयोग सर जार्ज ग्रिर्यसन ने किया। रैदान सगुण व निर्गुण उपासक थे। कबीर कहते हैं कि ईश्वर सूक्ष्म रूप में घट-घट में विद्यमान है। संत निरंजन ग्रंथ में आधे में सगुण और आधे में निर्गुण उपासक की बात कही गयी है। हर सम्प्रदाय मंस उपसम्प्रदाय बने हुए हैं। आचार्य जी पर बोध का प्रभाव था। इनके ऊपर नाथपंथ का प्रभाव था, जिससे इन्होंने अलख निरंजन का प्रभाव आया। योग साधना का प्रभाव संतों पर पड़ा है। वर्णाश्रम मोक्ष भक्ति का प्रभाव इन पर पड़ा है, तो यह कहना कि जिन संतों का आचार्य जी ने उल्लेख किया, वह सनातन विरोधी थे, यह गलत होगा। संत वह जो अक्रोध हो, शील हो, क्षमा देने वाला हो।

आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के पौत्र असित चतुर्वेदी ने कहा कि मैंने 1994 में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी स्मारक समिति का गठन किया। इसके अन्तर्गत लखनऊ व बलिया में वर्ष में एक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। साहित्य अकादमी, दिल्ली ने आचार्य परशुराम चतुर्वेदी पर पुस्तक का प्रकाशन किया है। मेरा प्रयास है कि आचार्य जी के छूटे साहित्य का प्रकाशन ई-बुक के माध्यम से किया जाए। साथ ही एक ई-लाइब्रेरी तैयार की जाए, जिसके आचार्य जी के साहित्य का प्रदर्शित किया जाए। मैं आचार्य जी के ऋण को न उतार पाया हूँ और न उतार पाऊँगा। इस मंच से मैं आह्वान करता हूँ कि पूर्वजों के लिए हमें कुछ न कुछ करते रहना चाहिए।

आगरा से पधारें डॉ. उमापति दीक्षित ने कहा- मैं तुलसी का उपासक हूँ। बार-बार हम लोग संत साहित्य को याद करते हैं लेकिन उसके किसी भी वाक्य को जीवन में निर्वहन नहीं करते। रीढ़ की हड्डी की तरह अगर कोई व्यक्ति है तो उसकी कथनी और करनी में फर्क नहीं होता। संतों में जो बेबाकीपन होता है वह एक नारियल की तरह होता है, जो ऊपर कठोर और अंदर से कोमल होता है।

डॉ. सुधाकर अदीब ने कहा- आचार्य आचार्य परशुराम चतुर्वेदी जैसे संत सदियों में कहीं दो-चार हुआ करते हैं। संत साहित्य पर जिस तरह उन्हेांने कार्य किया उस प्रकार वह स्वयं संतों की श्रेणी में आ जाते हैं।

डॉ. हरिशंकर मिश्र ने कहा कि यह सत्य है कि अपने पूर्वजों के प्रति जिन लोगों का स्नेह है उन्हें यश कीर्ति की प्राप्ति होती है। आयु, विद्या, यश व बल चार चीजें मनुष्य को पितरों की वजह से प्राप्त होती हैं। हमें अपने पितरों के अवदान को रेखांकित करने के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए।

इस अवसर पर आचार्य परशुराम चतुर्वेदी की पुत्रियाँ आशा पांडे व शांति तिवारी, पौत्रवधू डॉ. कणिका चतुर्वेदी व श्रीमती चारू चतुर्वेदी, पौत्र डॉ. अजित कुमार चतुर्वेदी, सुधीर चतुर्वेदी, राजीव चतुर्वेदी, पौत्री डॉ. साधना पांडे, अर्चना दुबे, मालती पांडे व कांति ओझा विशेष रूप से उपस्थित थीं।

हिन्दुस्थान समाचार/ दिलीप शुक्ल/राजेश

Share this story