चुनाव में सोशल अपील ने ले ली मान-मनौव्वल और चिरौरी की जगह

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चुनाव में सोशल अपील ने ले ली मान-मनौव्वल और चिरौरी की जगह


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चुनाव में सोशल अपील ने ले ली मान-मनौव्वल और चिरौरी की जगह


चुनाव में सोशल अपील ने ले ली मान-मनौव्वल और चिरौरी की जगह










अयोध्या ,13 मई (हि.स.)। जमाना बदला, वोट मांगने का तौर तरीका भी एक दम अलहदा हो गया। ज्यादा नहीं दो-ढाई दशक पहले से अब में चुनाव प्रचार का तरीका एकदम उलट हो गया है।

फैज़ाबाद लोकसभा सीट के मिल्कीपुर विधानसभा क्षेत्र के ग्राम घुरेहटा निवासी 80 वर्षीय बुजुर्ग महिला गायत्री देवी बताती हैं कि पहले चुनाव में बड़ा हल्ला गुल्ला होता था। लोग माइक लगाकर जीप से प्रचार करते थे, जीप के पीछे बच्चे सरपट दौड़ लगाते थे। बच्चों को दौड़ता देख जीप में बैठे पार्टी कार्यकर्ता कुछ पर्चे, बिल्ले फेंक देते थे। अब यह सब गुजरे जमाने की चीज हो गई। अब तो सोशल साइट्स पर अपील की जा रही है। टीवी में प्रचार आ रहे हैं। आखिरी तक पता ही नहीं लग पाता कि कौन किस पार्टी से उम्मीदवार है। बस इतना पता चलता है कि यह मोदी योगी की पार्टी का है, वह अखिलेश वाला है, फलाने हाथ के पंजे से खड़े हैं। हाथी वाले उम्मीदवार का फला नाम है। लेकिन हम जैसे आम मतदाताओं को किसी उम्मीदवार की प्रोफाइल नहीं पता है। पहले के जमाने में चुनाव के दरम्यान गांव गिराव में रौनक होती थी, शाम को गांव के कुएं की जगत पर चुनावी चौपालें सजती थीं लेकिन अब सब कुछ बदल गया है।

अब प्रत्याशी किस जाति, धर्म और दल का उम्मीदवार है। बस इतना ही काफी है। समाज में उसकी छवि और काम काज करने के तौर-तरीके कैसे हैं, इसको नहीं देखा जा रहा है। बुजुर्ग मतदाता गायत्री बतातीं है कि पहले गांव के कोई सामाजिक व्यक्ति आते थे, दरवाजे की कुंडी खड़काते हुए कहते थे, काकी बाहर निकलो वोट वाले आये हैं, हम बाहर आकर उनका परिचय जानते थे, गुड़ चबैना से स्वागत करते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है।

वहीं ग्राम सोहवल सलोनी पूरे शुक्ल निवासी 70 वर्षीय अर्जुन प्रसाद शुक्ल बताते हैं कि तीन दशक पहले के चुनाव में और अब के चुनाव में जमीन आसमान जैसा अंतर आ गया है। कहते हैं कि पहले गांव गांव में आकर लोग अपने नेता की खूबी बताते थे। प्रत्याशी जब गांव आकर अपने पूर्वजों की पहचान बता कर फिर अपने बारे में बताते थे। लोगों के बात समझ में आ जाती तो वोट के लिए हां बोल देते और फिर चाहे जो आता और दूसरे किसी को वोट नहीं देते थे, लेकिन अब तो नेताओं की तरह रातोंरात हमारे वोट की प्राथमिकताएं भी बदलने लगी हैं। अब उम्मीदवार की जाति और धर्म को देखकर वोट दिया जा रहा है। उसकी पढ़ाई लिखाई और सामाजिक कार्यों की पड़ताल करने वाला कोई नहीं है। इसी तरह से ग्राम पलिया लोहानी के 77 वर्षीय रंजीत शर्मा बताते हैं कि ढाई दशक पहले तक चुनाव के दरम्यान साप्ताहिक बाजारों के दिन सभी पार्टियां गाड़ियों पर लाउडस्पीकर व झंडे लगाकर बाजारों में पहुंच जाती थी और एक दूसरे की तरफ लाउडस्पीकर का मुंह करके घंटों भाषण व नारेबाजी की जाती थी। लेकिन अब पता ही नहीं चलता कब पर्चा दाखिल हुआ और कब वोटिंग शुरू हो गई।

वहीं पिड़ोरा निवासी 60 वर्षीय सुरेश गोस्वामी बताते हैं कि पहले चुनाव में हल्ला गाड़ियां बनवायी जाती थी, उन्हें पोस्टर और झंडों से सजाया जाता था। पार्टी के झंडे के कलर में पूरी गाड़ी रंगी जाती थी। गाड़ी में बैठे लोग हारमोनियम एवं ढोल मंजीरे के साथ उम्मीदवार के समर्थन में कजरी, कहरौआ, सोहर इत्यादि गाने गाते हुए वोट मांगते थे लेकिन अब ऐसा कुछ भी नहीं है। चुनावी मौसम में गजब का हो-हल्ला और शोरगुल तथा चहल-पहल रहती थी। कहते हैं कि पहले सामाजिक कार्यकर्ता को चंदा लगाकर चुनाव लड़ाया जाता था, अब तो पार्टियों से टिकट खरीदने पड़ते हैं। यही वजह है कि आपराधिक इतिहास वाले उम्मीदवार के लिए राजनीति सबसे मुफीद जगह हो गई है।

हिन्दुस्थान समाचार /पवन पाण्डेय/बृजनंदन

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