नाटक मूलतः अभिनय की कला है : डॉ. नन्दकिशोर आचार्य
प्रयागराज, 15 अप्रैल (हि.स.)। नाटक मूलतः अभिनय की कला है, इसे एक अनुभूति यथार्थ की तरह देख सकते हैं। प्रत्येक कला में संवेदनात्मक कला होती है। नाटक और भाषा का गहरा सम्बंध होता है। यह बातें डॉ. नन्दकिशोर आचार्य ने उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र में विमर्श-4 एक नई पहल में कही।
सोमवार को उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र (संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार) द्वारा विमर्श-4 एक नई पहल का आयोजन सांस्कृतिक केंद्र परिसर में किया गया। इस अवसर पर साहित्य जगत में सर्वोच्च सम्मान प्राप्त करने वाले शलाका कवि चिंतक एवं नाटककार डॉ. नन्दकिशोर आचार्य को आमंत्रित किया गया था।
बीकानेर में जन्मे डॉ. नन्दकिशोर आचार्य ने इक्कीस कविता संग्रह, आठ नाटकों के निर्देशन के साथ ही अहिंसा विश्वकोष, अज्ञेय, निर्मल वर्मा सहित अनेकों पुस्तकों का सम्पादन भी किया है। इंग्लैंड, चीन, बेल्जियम, नेपाल, इंडोनेशिया आदि देशों में अपना व्याख्यान दे चुके डॉ. नन्दकिशोर साहित्य जगत के पुरोधा माने जाते हैं। उन्होंने समाज और साहित्य की वर्तमान परिस्थितियों पर बातचीत की तथा कविता संग्रह कब तक छीलता रहूं, जल है झन, आती है जैसी मृत्यु, शब्द भूले हुए तथा चौथा सप्तक को श्रोताओं के समक्ष रखा। देहान्तर, जूते, बापू और किसी और का सपना जैसे नाटकों पर चर्चा की।
केंद्र निदेशक प्रो. सुरेश शर्मा ने मुख्य अतिथि का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि डॉ. आचार्य की कविताएं जीवन की गहराईयों को तो व्यक्त करती हैं साथ ही वह पाठकों को प्रेरणा से भी भर देती हैं। इस दौरान श्रोताओं के पूछे गए प्रश्नों का उन्होंने जबाव भी दिया। परिचर्चा के दौरान उपस्थित दर्शकों द्वारा साहित्य और नाटक से जुड़े कई पहलुओं पर विचार विमर्श किया गया। अंत में केंद्र निदेशक ने समस्त कला प्रेमियों का आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर केंद्र के अधिकारी व कर्मचारी सहित काफी संख्या में लोग उपस्थित रहे। संचालन डॉ. अमितेश ने किया।
हिन्दुस्थान समाचार/विद्या कान्त/मोहित
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