औरैया के दुर्वासा ऋषि आश्रम का है प्राचीन इतिहास, तपस्या के चलते पड़ा 'दोवा समाधि' नाम

WhatsApp Channel Join Now
औरैया के दुर्वासा ऋषि आश्रम का है प्राचीन इतिहास, तपस्या के चलते पड़ा 'दोवा समाधि' नाम


औरैया,10 जुलाई (हि.स.)। पौराणिक इतिहास के अनुसार विष्णु भक्त इक्ष्वाकुवंशीय अवध के राजा अम्बरीश ने एक बार द्वादश एकादशी का व्रत रखा। व्रत के पारण से कुछ ही पहले दुर्वासा ऋषि का उनके यहां आगमन हुआ। राजा ने ऋषि का आदर सत्कार करके भोजन करने का आग्रह किया।

अनुरोध स्वीकार करके ऋषि नदी में स्नान करने चले गए और बहुत देर तक नहीं लौटे। जब व्रत के पारण का समय बीतने लगा तब विद्वानों के परामर्श पर राजा ने जल ग्रहण कर लिया। लौटने पर जब दुर्वासा ने देखा कि अम्बरीश ने उनकी प्रतीक्षा किए बिना ही जल ग्रहण लिया है तो वे कुपित हो उठे। उन्होंने राजा को मारने के लिए अपनी जटा के एक बाल को पृथ्वी पर पटककर कृतिका को उत्पन्न किया। जैसे ही कृतिका राजा को मारने के लिए आगे बढ़ी उसी समय भगवान विष्णु की आज्ञा से चक्र सुदर्शन ने प्रकट होकर कृतिका का वध कर दिया था। समाधि स्थल की प्राचीनता और पौराणिकता के बारे में भारत प्रेरणा मंच के महासचिव अविनाश अग्निहोत्री ने विस्तार से बताया।

श्रावण मास के पहले सोमवार के शुभअवसर पर उन्होंने बताया कि चक्र सुदर्शन ने दुर्वासा ऋषि को उनके किये का दण्ड देने के लिए उनका पीछा करना शुरू कर दिया। दुर्वासा ऋषि अपनी रक्षा के लिए सभी के पास गये लेकिन कोई भी भगवान विष्णु के चक्र सुदर्शन से उनकी रक्षा का साहस नहीं जुटा पाया। अन्त में वह अपनी माता सती अनुसुइया के पास गये तो उन्होंने उनको भगवान विष्णु की शरण में जाने के लिए कहा। वह भगवान विष्णु के पास पहुंचे तो भगवान विष्णु ने कहा आपने ऋषि परम्परा के विपरीत निर्दोष राजा अम्बरीश को मारने का प्रयास किया है। इसलिए आप उसी से जाकर क्षमा मांगे तभी आपके प्राणों की रक्षा हो सकेगी। दुर्वासा ऋषि ने राजा अम्बरीश के पास जाकर अपने किये पर पश्चाताप करते हुये क्षमा मांगी तब चक्र सुदर्शन से उनके प्राणों की रक्षा हुयी। अपराध बोध में दुर्वासा ऋषि ने इसी निर्जन स्थान पर दूर्वा घास खाकर व समाधित रहकर लम्बे समय तक घोर तपस्या की इसी कारण इस स्थान का नाम ‘दोवा समाधि’ पड़ा।

प्रेरणा मंच के महासचिव ने बताया कि वर्तमान में स्थापित मन्दिर का निर्माण काल 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ का है। मन्दिर प्रांगण में 6वीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी तक के कई शिवलिंग और भग्न देव प्रतिमाएं हैं। जिससे यह सिद्ध होता है कि इस स्थान पर प्राचीन समय से मन्दिर स्थापित था। प्राचीन मन्दिर को विदेशी हमलावरों द्वारा नष्ट कर दिया गया लेकिन वह इस स्थान की ख्याति समाप्त नहीं कर पाये। उसी का परिणाम रहा कि 19वीं शताब्दी में पुनः इस स्थान पर विशाल मन्दिर का निर्माण हुआ। मन्दिर प्रांगण में सती अनुसुइया, ऋषि अष्टावक्र, तुतला देवी व हकला देवी और मन्दिर के दाहिने तरफ अयोध्यानन्द महाराज की समाधि स्थापित है। मन्दिर निर्माण के साथ यहां एक विशाल जलाशय का भी निर्माण कराया गया था। जिसका अमृत सरोवर योजना के अन्तर्गत वर्तमान में सौन्दर्यीकरण कराया गया।

भगवान बुद्ध ने 16वां वर्षकाल जनपद के इसी क्षेत्र के कस्बा एरवा-कटरा (प्राचीन नाम आलवी) में बिताया था। इस प्रकार यह क्षेत्र भगवान बुद्ध की भी कर्मस्थली रहा है। शमसाबाद के नबाब ने अपने परिवारी जनों को यह क्षेत्र दस हजार रुपये वार्षिक माल गुजारी की माफी के साथ सौंप दिया था। इसलिए इस क्षेत्र को दोवा माफी के नाम से भी जाना जाता है।

हिन्दुस्थान समाचार/सुनील /मोहित

Share this story