समृद्ध हो रहा विश्व फलक पर शुमार नंदा देवी महोत्सव, पेश कर रहा सर्वधर्म संभाव की मिशाल

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समृद्ध हो रहा विश्व फलक पर शुमार नंदा देवी महोत्सव, पेश कर रहा सर्वधर्म संभाव की मिशाल


नैनीताल, 08 सितंबर (हि.स.)। एक शताब्दी से अधिक पुराना 122वें वर्ष में आयोजित हो रहा सरोवरनगरी का उत्तराखंड के कुमाऊं व गढ़वाल मंडलों को एकसूत्र में पिरोने वाली माता नंदा देवी का महोत्सव लगातार समृद्ध हो रहा है। पिछली शताब्दी और इधर तेजी से सांस्कृतिक शून्यता की ओर जाते दौर में भी यह महोत्सव न केवल अपनी पहचान कायम रखने में सफल रहा है, वरन इसने सर्वधर्म संभाव की मिशाल भी पेश की है। पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी यह देता है और उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं व गढ़वाल अंचलों को भी एकाकार करता है। यहीं से प्रेरणा लेकर कुमाऊं के विभिन्न अंचलों में फैले मां नंदा के इस महापर्व ने देश के साथ विदेश में भी अपनी पहचान स्थापित कर ली है।

कौन हैं माता नंदा सुनंदा

इस मौके पर मां नंदा सुनंदा के बारे में फैले भ्रम और किंवदंतियों को जान लेना आवश्यक है। विद्वानों के इस बारे में अलग-अलग मत हैं, लेकिन इन सभी को जोड़कर देखें तो हिमालय की नंदादेवी, नंदगिरि व नंदाकोट पर्वत श्रृंखलाओं की धरती देवभूमि को एक सूत्र में पिरोने वाली शक्तिस्वरूपा मां नंदा ही हैं। यहां सवाल उठता है कि नंदा महोत्सव के दौरान कदली वृक्ष से बनने वाली एक प्रतिमा तो मां नंदा की है, लेकिन दूसरी प्रतिमा पर जरूर प्रश्न उठता है कि यह मूर्ति किनकी है, सुनंदा, सुनयना अथवा गौरा पार्वती की।

एक दंतकथा के अनुसार मां नंदा को द्वापर युग में नंद यशोदा की पुत्री महामाया भी बताया जाता है जिसे दुष्ट कंश ने शिला पर पटक दिया था, लेकिन वह अष्टभुजाकार रूप में प्रकट हुई थीं। त्रेता युग में नवदुर्गा रूप में प्रकट हुई माता भी वह ही थी। यही नंद पुत्री महामाया नवदुर्गा कलियुग में चंद वंशीय राजा के घर नंदा रूप में प्रकट हुईं, और उनके जन्म के कुछ समय बाद ही सुनंदा प्रकट हुईं। राज्यद्रोही शडयंत्रकारियों ने उन्हें कुटिल नीति अपनाकर भैंसे से कुचलवा दिया था। उन्होंने कदली वृक्ष की ओट में छिपने का प्रयास किया था लेकिन इस बीच एक बकरे ने केले के पत्ते खाकर उन्हें भैंसे के सामने कर दिया था। बाद में यही कन्याएं पुर्नजन्म लेते हुए नंदा-सुनंदा के रूप में अवतरित हुईं और राज्यद्रोहियों के विनाश का कारण बनीं। इसीलिए कहा जाता है कि सुनंदा अब भी चंदवंशीय राजपरिवार के किसी सदस्य के शरीर में प्रकट होती हैं। इस प्रकार दो प्रतिमाओं में एक नंदा और दूसरी सुनंदा हैं।

ऐसे हुई नंदा देवी महोत्सव की शुरुआत

अपनी पुस्तक कल्चरल हिस्ट्री आफ उत्तराखंड के हवाले से प्रख्यात इतिहासकार प्रो. अजय रावत बताते हैं कि सातवीं शताब्दी में बद्रीनाथ के बामणी गांव से नंदा देवी महोत्सव की शुरूआत हुई, जो फूलों की घाटी के घांघरिया से होते हुए गढ़वाल पहुंची। तब गढ़वाल 52 गणपतियों (सूबों) में बंटा हुआ था। उनमें चांदपुर गढ़ी के शासक कनक पाल सबसे शक्तिशाली थे। उन्होंने ही सबसे पहले गढ़वाल में नंदा देवी महोत्सव शुरू किया। प्रो. रावत बताते हैं कि आज भी बामणी गांव में मां नंदा का महोत्सव धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इधर गढ़वाल से लाये जाने के बाद से कुमाऊं मंडल के बागेश्वर जनपद में गरुड़-बैजनाथ के पास स्थित कोट भ्रामरी मंदिर और कपकोट के पास पोथिंग एवं चंद राजाओं की राजधानी अल्मोड़ा में 1673 के बाद से माता नंदा देवी की नंदाष्टमी पर वार्षिक पूजा की जाने लगी, और यहां इस दौरान परंपरागत तरीके से मेले-कौतिक भी लगने लगे। अल्मोड़ा में प्रारंभ में यह आयोजन चंद वंशीय राजाओं की अल्मोड़ा शाखा द्वारा होता था, किंतु 1938 में इस वंश के अंतिम राजा आनंद चंद के कोई पुत्र न होने के कारण तब से यह आयोजन इस वंश की काशीपुर शाखा द्वारा आयोजित किया जाता है, जिसका प्रतिनिधित्व वर्तमान में नैनीताल के पूर्व सांसद केसी सिंह ‘बाबा’ करते हैं। इधर नैनीताल नगर में अंग्रेजों के आगमन के बाद उनके भवनों के निर्माण के लिए अल्मोड़ा से आए मोती राम शाह माता ने नैनीताल में भी नंदा देवी की पूजा की शुरुवात की। कहते हैं कि यहाँ वर्तमान बोट हाउस क्लब के पास नगर की आराध्य देवी माता नयना का मंदिर प्राचीन काल से था।

वहीं, इतिहासकार डा. मदन चन्द्र भट्ट के अनुसार सघन वनाच्छादित तृषि (त्रिऋषि) सरोवर के पार्श्व में नैना देवी मंदिर की स्थापना चौदहवी शताब्दी के अंत में युद्ध में कत्यूरी सम्राट धामदेव की माता जिया रानी ने अपनी विजय को चिर स्थायी करने के लिए की थी, और नंदा अष्टमी पर मेले का प्रारम्भ भी किया था। कुमाऊं के लोकगायकों द्वारा चित्रशिला घाट रानीबाग में उत्तरायणी मेले के दौरान के अद्भुद जिया रानी के शोर्य एवं वीरता का उल्लेख करते हुए गाये जाने वाले जागर गीतों में भी नैनीताल में नयना देवी के मंदिर की स्थापना का जिक्र इन शब्दों में आता है- ‘उती को बसना को आयो, यो नैनीताल, नैनीताल, नैनीदेवी थापना करी छ।’

1880 में यह मंदिर नगर के विनाशकारी भूस्खलन की चपेट में आकर दब गया, जिसे बाद में वर्तमान नयना देवी मंदिर के स्थान पर स्थापित किया गया। यहां मूर्ति को स्थापित करने वाले मोती राम शाह ने ही 1903 में अल्मोड़ा से लाकर नैनीताल में नंदा महोत्सव की शुरुआत की। शुरुआत में यह आयोजन मंदिर समिति द्वारा ही आयोजित होता था। जबकि 1926 से यह आयोजन नगर की सबसे पुरानी धार्मिक सामाजिक संस्था श्रीराम सेवक सभा को दे दिया गया, जो तभी से लगातार दो विश्व युद्धों एवं इधर 2020 व 2021 में कोरोना काल देश में सब कुछ रुक जाने के दौरान भी बिना रुके सफलता से और नए आयाम स्थापित करते हुए यह आयोजन कर रही है। यहीं से प्रेरणा लेकर अब कुमाऊं के कई अन्य स्थानों पर भी नंदा महोत्सव के आयोजन होने लगे हैं। इसलिए नैनीताल को नंदा महोत्सवों का प्रणेता भी कहा जाता है और चूंकि वास्तव में यहां राजा नहीं बल्कि प्रजा यानी जनता इस आयोजन को करती है, इसलिये इसे गढ़वाल मंडल में होने वाली माता नंदा की राजजात की तर्ज पर मां नंदा की ‘लोकजात’ भी कहा जाता है।

हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. नवीन चन्द्र जोशी

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