ग्रीष्म कला उत्सव-1 : सामुदायिक रंगमंच और नृत्य पर आधारित वृतचित्रों का प्रदर्शन

ग्रीष्म कला उत्सव-1 : सामुदायिक रंगमंच और नृत्य पर आधारित वृतचित्रों का प्रदर्शन
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ग्रीष्म कला उत्सव-1 : सामुदायिक रंगमंच और नृत्य पर आधारित वृतचित्रों का प्रदर्शन


देहरादून, 10 मई (हि.स.)। लैंसडाउन स्थित दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के ग्रीष्म कला उत्सव-1 को साहित्य कला गीत-संगीत और सिनेमाई कला के विविध पक्षों पर केंद्रित करने का प्रयास किया जा रहा है। पांच दिवसीय कार्यक्रम के तीसरे दिन शुक्रवार को पहले सत्र में छात्रों के लिए सामूहिक परिचर्चा आयोजित हुई।

यह परिचर्चा ‘कला और संस्कृति को बढ़ावा देना उपयोगहीन है और केवल धन की खपत होती है व कोई वास्तविक मौद्रिक रिटर्न नहीं मिलता है’ विषय पर आधारित थी। इसके सहमति और असहमति पर आठ युवा छात्रों ने अपने विचार रखे। सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु आहूजा, इतिहासकार डाॅ. योगेश धस्माना परिचर्चा के निर्णायक थे। पर्यावरण के मुद्दों पर कार्य करने वाली इरा चौहान ने परिचर्चा का संचालन किया।

दूसरे सत्र में सामुदायिक थिएटर और सबाल्टर्न नृत्य पर आधारित तीन फिल्मों के वृतचित्रों का प्रदर्शन किया गया। इसमें पहली फिल्म ‘जननीज जूलियट‘ पांडिचेरी स्थित थिएटर समूह, इंडियनोस्ट्रम की यात्रा का अनुसरण करवाती है। जाति व वर्ग की बाधाओं से गुजरते और समझते हुए हैं यह फिल्म बताने का प्रयास करती है कि महिलाओं की स्वतंत्रता और उनका प्रेम किस तरह प्रभावित होता हैं। शास्त्रीय रोमियो जूलियट प्रेम कहानी के एक समकालीन संस्करण की संकल्पना करते हैं। इसकी अवधि 53 मिनट की है और पंकज ऋषि कुमार ने इसे निर्देशित किया है।

दूसरी फिल्म ‘द जर्नी फ्राॅम सादिर टू भरतनाट्यम की अवधि 26 मिनट की थी। इसे विवेका चौहान ने निर्देशित किया है। माना जाता है कि किसी समय किए जाने वाला मंदिर नृत्य भरतनाट्यम देवदासियों का विषय क्षेत्र था, जो अब शहरी महिलाओं द्वारा पेशेवर तौर पर किया जाता है। अब यह इतिहास का एक प्रतीक बन गया है। अब इस प्रक्रिया में उन पहलुओं को मिटा सा दिया गया है जिन्होंने इसके जन्म और विकास में योगदान दिया था। इस वृतचित्र में सबाल्टर्न नृत्य शैली के शहरी, ब्राह्मणवादी नृत्य शैली में परिवर्तन के कारण जो कुछ खो गया है और जो कुछ प्राप्त हुआ है, उसकी रूपरेखा प्रस्तुत की गई है।

तीसरी प्रदर्शित वृतचित्र फिल्म ‘कूथु’ 53 मिनट अवधि की थी। और संध्या कुमार ने इसे निर्देशित किया है। पारंपरिक रूप से स्थानीय ग्रामदेवी को प्रसन्न करने के लिए हाशिए पर चली गई जनजातियों द्वारा कुथु का अभ्यास करना आवश्यक था। दो कुथु मास्टर्स के साथ किया गया साक्षात्कार कला के विकास का पता लगाने में मदद करते हैं। पहले हैं कट्टाईकुट्टू नाम के कलाकार और शिक्षक पी राजगोपाल, जो अपनी पत्नी और विद्वान हने एमडी ब्रुइन के साथ कांचीपुरम में कटाईकुट्टू गुरुकुलम चलाते हैं। गुरुकुलम कला के रूप को संस्थागत बनाने और इसके पूर्व और वर्तमान अकादमिक अध्ययन की पेशकश की पहल करने वाले प्रयासरत लोगों में से एक है।

दूसरे कुथु मास्टर संबंदन थंबिरन हैं, जो एक अनुभवी कलाकार थेरुकुथु कन्नप्पा थंबिरन के बेटे हैं। यह वृतचित्र इन अभ्यासकर्ताओं और उनके छात्रों का अवलोकन करने का यत्न करती है और उनके रिहर्सल और प्रदर्शन को करीब से देखती है। कुथु की यह कहानी इसके सौंदर्यशास्त्र और परंपरा के इर्द-गिर्द जाति और लिंग की राजनीति को एक साथ जोड़ने का प्रयास करती है।

इस दौरान दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के अध्यक्ष प्रो. बीके जोशी, विजय पाहवा, डॉ. अतुल शर्मा, डॉ. नंदकिशोर हटवाल, विनोद सकलानी, अपर्णा वर्धन मनमोहन चड्ढा के अलावा रंगमंच व फिल्म से जुड़े लोग, साहित्यकार, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और पुस्तकालय के सदस्य आदि थे।

हिन्दुस्थान समाचार/कमलेश्वर शरण/सत्यवान/वीरेन्द्र

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