फूल देई : यह नए वर्ष का फूलों से स्वागत का लोक-प्रकृति पर्व

नैनीताल, 13 मार्च (हि.स.)। हिन्दू नव वर्ष यानी चैत्र महीने की पहली तारीख (स्थानीय भाषा में 1 पैट या गते) को उत्तराखंड के कुमाऊं में मेष संक्रांति, फूल संक्रांति और फूल देई के नाम से मनाया जाता है।
इस वर्ष बसन्त ऋतु के स्वागत का यह त्योहार 15 मार्च 2023 को समूचे उत्तराखंड में बड़ी धूम-धाम से फूलदेई मनाया जा रहा है। उत्तराखंड की धरती पर अलग-अलग ऋतुओं के अनुसार पर्व-त्योहार मनाए जाते हैं। ये पर्व एक ओर हमारी संस्कृति को उजागर करते हैं, तो दूसरी ओर प्रकृति के प्रति पहाड़ के लोगों के सम्मान और प्यार को भी दर्शाते हैं। इसके अलावा पहाड़ की परंपराओं को कायम रखने के लिए भी ये पर्व-त्योहार खास हैं।
फूल संक्रांति यानी फूल देई का सीधा संबंध भी प्रकृति से है इस समय चारों ओर छाई हरियाली और नाना प्रकार के खिले फूल प्रकृति के यौवन में चार चांद लगाते हैं। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार चैत्र महीने से ही नव वर्ष शुरू होता है। इस नव वर्ष के स्वागत के लिए बसन्त के आगमन से ही पूरा पहाड़ बुरांश की लालिमा और गांव आडू, खुबानी के गुलाबी-सफेद रंगों से भर जाता है। खेतों में सरसों खिल जाती है तो पेड़ों में फूल भी आने लगते हैं। इस दिन छोटे बच्चे सुबह ही उठकर जंगलों की ओर चले जाते हैं और वहां से प्योली, फ्यूंली, बुरांश, बासिंग आदि जंगली फूलों के अलावा आडू, खुबानी, पुलम के फूलों को चुनकर लाते हैं और एक थाली या रिंगाल की टोकरी में चावल, हरे पत्ते, नारियल और इन फूलों को सजाकर हर घर की देहरी पर लोकगीतों को गाते हुए जाते हैं और देहरी का पूजन करते हुए पास-पड़ोस के घरों में जाकर उनकी दहलीज पर फूल चढ़ाते हैं और सुख-शांति की कामना करते हुए गाते हैं और प्रकृति को इस अप्रतिम उपहार सौंपने के लिये धन्यवाद भी अदा करते हैं।
फूलदेई, छम्मा देई....
जतुकै देला, उतुकै सही।
देंणी द्वार, भर भकार,
सास ब्वारी, एक लकार,
यो देलि सौ नमस्कार।
फूलदेई, छम्मा देई...
जतुकै देला, उतुकै सही।
इसके बदले में उन्हें परिवार के लोग गुड़, चावल व रुपये देते हैं। इस चावल व गुड़ आदि से शाम को चावल पीसकर इसके आटे का हलवा-शई भी बनाया जाता है, और विशेष रुप से प्रसाद स्वरूप ग्रहण किया जाता है। इस दिन से लोकगीतों के गायन का अंदाज भी बदल जाता है, होली के फाग की खुमारी में डूबे लोग इस दिन से ऋतुरैंण और चौती गायन में डूबने लगते हैं। ढोल-दमाऊ बजाने वाले लोग जिन्हें बाजगी, औली या ढोली कहा जाता है। वे भी इस दिन गांव के हर घर के आंगन में आकर इन गीतों को गाते हैं। जिसके फलस्वरूप घर के मुखिया द्वारा उनको चावल, आटा या अन्य कोई अनाज और दक्षिणा देकर विदा किया जाता है।
हिन्दुस्थान समाचार/डॉ. नवीन जोशी
हमारे टेलीग्राम ग्रुप को ज्वाइन करने के लिये यहां क्लिक करें, साथ ही लेटेस्ट हिन्दी खबर और वाराणसी से जुड़ी जानकारी के लिये हमारा ऐप डाउनलोड करने के लिये यहां क्लिक करें।