अंग्रेज व्यवसायी पीटर बैरन 1841 में आया नैनीताल
नैनीताल, 18 नवंबर (हि.स.)। ऐसा माना जाता है कि 18 नवम्बर 1841 को एक अंग्रेज शराब व्यवसायी पीटर बैरन नैनीताल आया और उसने इस स्थान के थोकदार नर सिंह को नाव से झील के बीच ले जाकर डुबो देने की धमकी दी और शहर को कंपनी बहादुर के नाम करवा दिया था। यह अनायास नहीं था कि एक अंग्रेज इस स्थान पर आया और उसकी खूबसूरती पर फिदा होने के बाद इस शहर को ‘छोटी विलायत’ के रूप में बसाया।
यह अलग बात है कि इससे पूर्व 1821 में ही तत्कालीन कमिश्नर जीडब्लू ट्रेल इस स्थान पर आ चुके थे और इंग्लैंड के स्कॉटलैंड यानी पर्वतीय मूल के होने के कारण नैनीताल के बारे में यहां के मूल-स्थानीय लोगों की धार्मिक मान्यताओं के कारण उन्होंने इस स्थान को अंग्रेजों को नहीं बताया, अलबत्ता उन्होंने इस बारे में 1828 में प्रकाशित ‘एसियाटिक रिसर्च्स ऑर ट्रांसेक्सन्स ऑफ द सोसायटी..’ के 16वें वाल्यूम में ‘स्टेटिस्टिकल स्केच ऑफ कुमाऊ टिल 1823’ नाम से बड़ा आलेख लिखा था। उसे पढ़कर ही पीटर बैरन यहां आया।
सर्वविदित है कि नैनीताल अनादिकाल काल से त्रिऋषि सरोवर के रूप में अस्तित्व में रहा स्थान है। अंग्रेजों के यहां आने से पूर्व यह स्थान थोकदार नर सिंह की मिल्कियत थी। तब निचले क्षेत्रों से ग्रामीण इस स्थान को बेहद पवित्र मानते थे, लिहाजा सूर्य की पौ फटने के बाद ही यहां आने और शाम को सूर्यास्त से पहले यहां से लौट जाने की धार्मिक मान्यता थी। कहते हैं 1815 से 1830 के बीच कुमाऊं के दूसरे कमिश्नर रहे जीडब्ल्यू ट्रेल यहां से होकर ही अल्मोड़ा के लिए गुजरे और उनके मन में भी इस शहर की खूबसूरत छवि बैठ गई, लेकिन उन्होंने इस स्थान की धार्मिक मान्यताओं की मर्यादा का सम्मान रखा। दिसम्बर 1839 में पीटर बैरन ट्रेल के आलेख ‘स्टेटिस्टिकल स्केच ऑफ कुमाऊ टिल 1823’ को पढ़कर यहां आया और इसके सम्मोहन से बच न सका। व्यवसायी होने की वजह से उसके भीतर इस स्थान को अपना बनाने और अंग्रेजी उपनिवेश बनाने की हसरत भी जागी और 18 नवम्बर 1841 को वह पूरी तैयारी के साथ दुबारा यहां लौटा।
इसके अलावा नैनीताल को बसाये जाने के अन्य कारण भी थे। चूंकि वह औपनिवेशिक वैश्विकवाद व साम्राज्यवाद का दौर था। नए उपनिवेशों की तलाश व वहां साम्राज्य फैलाने के लिए फ्रांस, इंग्लैंड व पुर्तगाल जैसे यूरोपीय देश समुद्री मार्ग से भारत आ चुके थे, जबकि रूस स्वयं को इस दौड़ में पीछे महसूस कर रहा था। कारण, उसकी उत्तरी समुद्री सीमा में स्थित वाल्टिक सागर व उत्तरी महासागर सर्दियों में जम जाते थे। तब स्वेज नहर भी नहीं थी। ऐसे में उसने काला सागर या भूमध्य सागर के रास्ते भारत आने के प्रयास किये, जिसका फ्रांस व तुर्की ने विरोध किया। इस कारण 1854 से 1856 तक दोनों खेमों के बीच क्रोमिया का विश्व प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में रूस पराजित हुआ, जिसके फलस्वरूप 1856 में हुई पेरिस की संधि में यूरोपीय देशों ने रूस पर काला सागर व भूमध्य सागर की ओर से सामरिक विस्तार न करने का प्रतिबंध लगा दिया। ऐसे में रूस के भारत आने के अन्य मार्ग बंद हो गऐ थे और वह केवल तिब्बत की ओर के मार्गों से ही भारत आ सकता था। तिब्बत से उत्तराखंड के लिपुलेख, नीति, माणा व जौहार घाटी के पहाड़ी दर्रे से आने के मार्ग बहुत पहले से प्रचलित थे। ऐसे में अंग्रेज रूस को यहां आने से रोकने के लिए पर्वतीय क्षेत्र में अपनी सुरक्षित बस्ती बसाना चाहते थे। दूसरी ओर भारत में पहले स्वाधीनता संग्राम की शुरूआत हो रही थी। मैदानों में खासकर रुहेले सरदार अंग्रेजों के दुश्मन बने हुऐ थे। मेरठ गदर का गढ़ था ही। ऐसे में मैदानों के सबसे करीब और कठिन दरे के संकरे मार्ग से आगे का बेहद सुंदर स्थान नैनीताल ही नजर आया, जहां वह अपने परिवारों के साथ अपने घर की तरह सुरक्षित रह सकते थे। ऐसा हुआ भी। हल्द्वानी में अंग्रेजों व रुहेलों के बीच संघर्ष हुआ, जिसके खिलाफ तत्कालीन कमिश्नर रैमजे नैनीताल से रणनीति बनाते हुए हल्द्वानी में हुऐ संघर्ष में 100 से अधिक रुहेले सरदारों को मार गिराने में सफल रहे। रुहेले दर्रे पार कर नैनीताल नहीं पहुंच पाये और यहां अंग्रेजों के परिवार सुरक्षित रहे।
कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में अमेरिकी मिशनरी रेवरन बटलर जैसे लोग भी बचते-बचाते नैनीताल पहुंचे। कहा जाता है कि रुहेले सरदारों ने उन्हें भी देश पर राज करने की नीयत से आए अंग्रेज समझकर उनके परिवार पर भी बरेली में जुल्म करने शुरू किये थे। इससे बचकर बटलर अपनी पत्नी क्लेमेंटीना बटलर के साथ 1841 से शहर के रूप में विकसित होना प्रारंभ हो रहे नैनीताल आ गये। यहां उन्होंने शिक्षा के प्रसार के लिये 1858 में नगर के पहले स्कूल के रूप में हम्फ्री कालेज (वर्तमान सीआरएसटी स्कूल) की स्थापना की, और इसके परिसर में ही बच्चों एवं स्कूल कर्मियों के लिये प्रार्थनाघर के रूप में वर्तमान मैथोडिस्ट चर्च की स्थापना की, जिसे एशिया का पहला अमेरिकी मिशनरियों द्वारा स्थापित किया गया चर्च कहा जाता है। इसके बाद ही नैनीताल को अंग्रेजों ने अपने घर ‘छोटी बिलायत’ की तरह बसाया और यहां अपनी सुरक्षा व सुविधा के लिए अब तक नगर को सुरक्षित रखने वाल नाले, राजभवन, कलेक्ट्रेट, कमिश्नरी, सचिवालय (वर्तमान उत्तराखंड हाईकोर्ट) तथा सेंट जॉन्स, सेंट निकोलस व लेक चर्च सहित अनेकों मजबूत व खूबसूरत इमारतें बनवायीं।
हिन्दुस्थान समाचार/डॉ. नवीन जोशी

