धरोहर संरक्षण को गति प्रदान करेंगी ऐसी विरासत यात्राएं- सारंगदेवोत
उदयपुर, 18 अप्रैल (हि.स.)। विश्व विरासत दिवस के अवसर पर प्रताप गौरव शोध केन्द्र राष्ट्रीय तीर्थ, जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ के संघटक सहित्य संस्थान तथा इतिहास संकलन समिति उदयपुर जिला इकाई के संयुक्त तत्वावधान में ‘विरासत यात्रा’ का आयोजन किया गया। इस अवसर पर विरासत यात्रा को हरी झण्डी जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ के कुलपति डाॅ. एस.एस. सारंगदेवोत ने दिखाई। उन्होंने कहा कि भारतीय विरासत के संरक्षण के लिए इस प्रकार के आयोजनों की महती आवश्यकता है। विरासत यात्रा का आयोजन और इसके लिए स्मारकों व स्थलों का चयन भी उनके महत्व को देखकर किया गया है। इन धरोहरों के संरक्षण के लिए इतिहासविदों व पुराविदों को तुरंत प्रयास शुरू करने होंगे।
प्रताप गौरव शोध केन्द्र के अधीक्षक डाॅ. विवेक भटनागर व इतिहासकार डाॅ. राजेन्द्रनाथ पुरोहित ने बताया कि बेड़वास की नन्द बावड़ी उदयपुर से चित्तौड़ जाने के मार्ग पर थी। इसका निर्माण महाराणा राजसिंह के शासन में पंचोली फतहचंद 1668 ईस्वी (वि.सं. 1725) में बेड़वास में करवाया। इस बावड़ी के साथ एक हवेली, सराय, और करीब 7 बीघा में एक बाग भी विकसित किया गया। इस बावड़ी पर लगे अभिलेख को डोलो गजाधर ने 1673 ईस्वी में उकेरा। अभिलेख में बताया गया है कि महाराणा राज सिंह ने 1673 ईस्वी में इस बावड़ी का पानी पिया। साथ बावड़ी को बनवाने वाले पंचोली फतहचंद का सम्मान भी किया। वर्तमान में बावड़ी जीर्णशीर्ण है। इसका मंदिर व सराय अब उपलब्ध नहीं है, वहीं बाग अतिक्रमण का शिकार होकर गायब हो गया है। इस स्थल को संरक्षण की दरकार है।
साहित्य संस्थान के निदेशक डॉ. जीवन सिंह खरकवाल ने बताया कि झरनों की सराय का निर्माण महाराणा प्रताप की दादी झरना बाई की ओर से करवाया गया था। इसलिए इस सराय का सीधा सम्बंध मेवाड़ राजपरिवार है। सराय एक गढ़ परिसर में निर्मित है और इसके साथ एक बावड़ी भी निर्मित की गई है, जो क्षेत्र के आम लोगों के लिए पेयजल का साधन है। विरासत यात्रा के दौरान पता चला कि झरनों की सराय के साथ एक राधा-कृष्ण का मंदिर है और यह वर्तमान में निजी श्रेणी का मंदिर है। इसके अधिकार स्थानीय वैष्णव परिवार के पास है। उन्होंने इसे संरक्षित किया है। मंदिर के साथ की बावड़ी में एक अभिलेख भी मिला है। यह वर्तमान में पढ़ने योग्य नहीं है लेकिन इसका छविचित्र लेकर इसको पढ़ने का प्रयास किया जा रहा है। इस परिसर के अवशेषों को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग व सहित्य संस्थान, जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ (डीम्ड-टू-बी विश्वविद्यालय), उदयपुर ने खोजा।
इतिहास संकलन समिति के क्षेत्र संगठन सचिव छगनलाल बोहरा ने बताया कि इस यात्रा में आठ विरासत स्थलों का चिह्नित किया गया है। उन स्थानों पर जाकर इतिहासकार और पुराविद् इस विषय में अध्ययनरत विद्यार्थियों और जिज्ञासुओं को इनके महत्व और उनके ऐतिहासिक पहलुओं को समझाया। इन आठ स्थलों में बेड़वास की बावड़ी, झरनों की सराय, उदय निवास, लकड़कोट, झामरकोटड़ा (जामेश्वर महादेव), जीवाश्म उद्यान (झामेश्वर महादेव), अरावली के निर्माण प्रक्रिया का सबसे पुराना प्रमाण और गहड़वाली माता (महाराणा उदय सिंह द्वारा निर्मित गढ़) को शामिल किया गया है। यह यात्रा मेवाड़ की संस्कृति के संरक्षण में अपना विशेष स्थान रखती है।
इसके बाद यह दल त्रिमुखी बावड़ी देबारी, लकड़वास और भल्लों का गुड़ा गांव के मध्य स्थित अरावली के कटक पर स्थिति लकड़कोट होते हुए उदयनिवास पहुंचा। उदय निवास जिस टीले पर स्थित है उसे मेड़ी मगरी कहते है। यह मेड़ी मगरी आहड़ सभ्यता का स्थल है। यहां से दल में शामिल विद्यार्थियों और विशेषज्ञों ने आहड़ सभ्यता के मृदभाण्डों के अवशेष खोजे। इनमें आहड़ का विशिष्ट लाल काले मृदभाण्ड के अवशेष प्राप्त हुए। इसके अलावा अहार ताम्रपाषाण कालीन सफेद चित्रित काले व लाल मृदभाण्ड तथा मोटे चमकीले, चिकने भूरे मृदभाण्ड भी मिले।
यहां से विशेषज्ञों का दल जिसमें भू-विज्ञानी नरेन्द्र कावड़िया, इतिहासकार डाॅ. जे.के. ओझा व राजेन्द्रनाथ पुरोहित शामिल थे, झामरकोटड़ा पहुंचे। वहां पहुंचकर सभी ने करीब 2.8 करोड़ वर्ष पुरानी अरावली की आधारशिला को देखा। इस आधारशिला के बारे में परिचय भू-विज्ञानी नरेन्द्र कावड़िया ने दी। उन्होंने कहा कि इस प्रकार की चट़्टाने अरावली की आधारशिला बनाती है और यह पूरे अरावली क्षेत्र में दिखाई देती है। वहीं झामरकोटड़ा, झामेश्वर महादेव मंदिर के करीब स्थित स्ट्रोमेटोलाइट उद्यान में एशियाई स्ट्रोमेटोलाइट का समृद्ध भण्डार है। यहां पर फॉस्फोराइट विशाल संग्रह है। यह उद्यान 1.8 अरब वर्ष पुराना है जो इस क्षेत्र में जीवन के सबसे पुराने साक्ष्य के प्रमाण देता है।
इसके बाद दल गढ़वाली माता का मंदिर पहुंचा। स्थानीय श्रुति परम्परा में इसे महाराणा उदयसिंह गढ़ बताया जाता है। इसके बारे में जानकारी देते हुए डाॅ. जे.के ओझाा ने बताया कि जनश्रुति के अनुसार उदयसिंह उदयपुर से पहले झामरकोटड़ा को ही अपनी राजधानी बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने यहां पर गढ़ बनवाया था। यहां पर यात्रा में शामिल हुए विशिष्ट अतिथि मनोज जोशी का उपरणा ओढ़ा का स्वागत किया गया। यात्रा के अंत में इतिहास संकलन समिति, उदयपुर के मंत्री चैनशंकर दशोरा व साहित्य संस्थान के डाॅ. कुलशेखर व्यास ने सभी अतिथियों का आभार ज्ञापित किया।
हिन्दुस्थान समाचार/ सुनीता/संदीप
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