हल्दीघाटी का युद्ध मेवाड़ से मुगलों निष्कासन का आरम्भ था - बोहरा

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हल्दीघाटी का युद्ध मेवाड़ से मुगलों निष्कासन का आरम्भ था - बोहरा


-हल्दीघाटी युद्ध विजय दिवस पर संगोष्ठी

उदयपुर, 19 जून (हि.स.)। मेवाड़ के सम्मान का शिखर हल्दीघाटी का युद्ध आज भी जय-पराजय की कसौटी पर कसा जाता है, लेकिन यह युद्ध वास्तव में मेवाड़ मुगल संघर्ष का आरम्भ था। प्रताप ने युद्ध नीति में औचक आक्रमण की युद्ध नीति (गुरिल्ला युद्ध तकनीक) का आरम्भ इसी युद्ध के साथ किया और अगले सात वर्षों तक महाराणा प्रताप मुगलों को मेवाड़ से निष्कासित करने के लिए इस नीति का प्रयोग किया।

यह बात इतिहास संकलन समिति उदयपुर की ओर से आयोजित संगोष्ठी में क्षेत्रीय संगठन मंत्री छगनलाल बोहरा ने कही। हल्दीघाटी युद्ध विजय दिवस पर रविवार शाम को आयोजित संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुए डॉ. विवेक भटनागर ने कहा कि 1568 में चित्तौड़गढ़ की विकट घेराबंदी ने मेवाड़ की उपजाऊ पूर्वी बेल्ट को छीन लिया। हालांकि, बाकी जंगल और पहाड़ी राज्य अभी भी राणा के नियंत्रण में थे। मेवाड़ के माध्यम से अकबर गुजरात के लिए एक स्थिर मार्ग हासिल करने पर आमादा था। जब 1572 में महाराज कुमार प्रताप सिंह को महाराणा बनाया गया। अकबर ने महाराणा प्रताप को अपने ताबे में लाने के लिए कई दूतों को भेजा। इस प्रस्ताव को प्रताप ने अस्वीकार कर दिया। इस कारण एक बार फिर युद्ध अपरिहार्य हो गया। इस युद्ध के लिए गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी के दर्रे को तय किया गया। तीन घंटे तक चले इस युद्ध के प्रारम्भिक धावे के साथ ही मुगल सेना पीछे भागती हुई बनास नदी को पार करते हुए उत्तरी छोर की ओर 7 कोस दूर चली गई। तीन घंटे के बाद मेवाड़ की सेना पहाड़ों की ओर चली गई। वहीं मुगल सेना ने गोगुन्दा में आश्रय लिया।

संगोष्ठी में डॉ. महावीर प्रसाद जैने ने कहा कि वैसे मेवाड़ का मुगलों से संघर्ष महाराणा प्रताप से पहले महाराणा उदयसिंह के समय 1568 में चित्तौड़गढ़ की घेराबंदी के साथ आरम्भ हुआ और इसमें मेवाड़ का तीन चौथाई भाग मुगलों के अधिकार में चला गया था। इसके बाद 18 जून 1576 को महाराणा प्रताप के नेतृत्व में मेवाड़ की सेना ने मुगलों को नाकों चने चबवा दिए। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह प्रथम और मुगल सेनापति आसफ खान ने किया। इस युद्ध में महाराणा प्रताप को भील जनजाति का सहयोग मिला ।

समिति के जिला अध्यक्ष डॉ. जीवन सिंह खरकवाल ने बताया कि अकबर ने अपने राज्य को स्थिर करने के लिए राजपूतों से सम्बंध प्रगाढ़ करने आरम्भ किए लेकिन मेवाड़ के महाराणा ने आगरा में अकबर के दरबार में जाना स्वीकार नहीं किया। यही मेवाड़-मुगल संघर्ष को कारण बना। डॉ. हेमेन्द्र चौधरी ने बताया कि जब राणा प्रताप ने अपने पिता को मेवाड़ के सिंहासन पर बैठाया, तो अकबर ने उनके लिए राजनयिक दूतों की एक शृंखला भेजी। इस उद्देश्य गुजरात तक दिल्ली के लिए सीधे मार्ग को सुरक्षित करना था। साथ ही मेवाड़ के वनांचल में स्थित जस्ता, चांदी और सीसे की खानों को अपने अधिकार में लेना था।

जिला मंत्री चैनशंकर दशोरा ने बताया कि अकबर ने अपना पहला दूत जलाल खान कुरची को भेजा था। वह अकबर का एक पसंदीदा नौकर था, जो अपने मिशन में विफल रहा। एक अंतिम दूत टोडरमल भी प्रताप को मनाने में विफल रहा और युद्ध सुनिश्चित हो गया। कार्यक्रम के अंत में दीपक शर्मा ने धन्यवाद ज्ञापन किया। कार्यक्रम का संचालन डॉ. मनीष श्रीमाली ने किया।

हिन्दुस्थान समाचार/सुनीता कौशल/ईश्वर

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