जयरंगम: नाटकों में उठाए ज्वलंत मुद्दे,राग मद में संगीत ने दिया सुकून

WhatsApp Channel Join Now
जयरंगम: नाटकों में उठाए ज्वलंत मुद्दे,राग मद में संगीत ने दिया सुकून


जयरंगम: नाटकों में उठाए ज्वलंत मुद्दे,राग मद में संगीत ने दिया सुकून


जयपुर, 19 दिसंबर (हि.स.)। थ्री एम डॉट बैंड्स थिएटर फैमिली सोसाइटी, कला एवं संस्कृति विभाग, राजस्थान तथा जवाहर कला केन्द्र, जयपुर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित जयरंगम थिएटर फेस्टिवल का शुक्रवार को दूसरा दिन रहा। नाटकों के साथ सुरीले संगीत का रस घोलने वाली प्रस्तुतियों का कलाप्रेमियों ने जमकर आनंद लिया। कृष्णायन सभागार में शिल्पिका बोरदोलोई के नाटक ‘माजुली’ के साथ दिन की शुरुआत हुई। सुकृति आर्ट गैलरी में दुर्गा वेंकटेशन द्वारा निर्देशित नाटक ‘गरम रोटी’ खेला गया। रंगायन में रुचि भार्गव नरूला के नाटक ‘ढाई आखर प्रेम का’ में प्रेम का महत्व दिखाया गया। वहीं मध्यवर्ती में संदीप रत्नू के निर्देशन में हुई संगीतयमी प्रस्तुति राग—मद में थार के स्वर और शास्त्रीय रागों का अद्भुत समागम देखने को मिला।

शिल्पिका बोरदोलोई द्वारा निर्देशित यह नाटक माजुली असम की ब्रह्मपुत्र नदी में स्थित माजुली द्वीप के बदलते स्वरूपों को प्रभावशाली फिजिकल थिएटर के रूप में एक सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह प्रस्तुति संवादों के स्थान पर शरीर की भाषा, गति, संगीत और दृश्यात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से माजुली के जीवन को मंच पर जीवंत करती है। नाटक में माजुली के लोगों की दैनिक दिनचर्या, उनकी सांस्कृतिक परंपराओं, प्रकृति से उनका गहरा जुड़ाव और ब्रह्मपुत्र नदी के साथ निरंतर संघर्ष को संवेदनशीलता और कलात्मकता के साथ उकेरा गया है। जो नदी कभी जीवनदायिनी है तो वह नदी एकाएक रौद्र रूप धारण कर सब कुछ तहस-नहस भी कर सकती है। नाटक के दौरान ऑडियो-विजुअल माध्यम से नदी के दृश्य, असम का पारंपरिक संगीत और यह नाटक अनुभवों की एक यात्रा के रूप में सामने आता है जिसमें कलाकार अपने शारीरिक अभिनय के माध्यम से नदी का बहाव, नावों की गति, बारिश, बाढ़ और द्वीप के बदलते स्वरूप को दर्शाता है।

प्रेम, परिश्रम और अपेक्षा के ताने-बाने में औरत और रसोई के रिश्ते को उकेरता नाटक ‘गरम रोटी’ दुर्गा वेंकटेशन द्वारा लिखित, निर्देशित और अभिनीत नाटक ‘गरम रोटी’ चूल्हे और परिवार की जिम्मेदारियों के बीच स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रही महिलाओं के सशक्त सवालों को मंच पर लाता है। यह प्रस्तुति स्त्री के श्रम, उसकी भूमिका और समाज की जमी-जमाई धारणाओं पर दर्शकों को गंभीरता से सोचने के लिए मजबूर करती है। नाटक के दौरान ‘गरम रोटी लाइब्रेरी’ के माध्यम से देश के विभिन्न कोनों से महिलाओं की रिकॉर्डिंग सुनाई गई जो कहती हैं कि उन्हें खाना बनाने का शौक़ है, रसोई से उनका रिश्ता प्रेम का है, लेकिन उन्हें उन गरम-गरम रोटियों को परोसने से नफरत है, जिन्हें परोसते समय कोई उनका हाथ नहीं बंटाता, और बदले में बस यही अपेक्षा रखी जाती है कि रोटी हमेशा गरम हो। उसे बनाने वाले हाथों की कोई सैलरी नहीं तय होती। वहाँ तो बस यह मान लिया जाता है कि औरत का फर्ज है कि वह घर के हर सदस्य को अपने हाथ से बनी रोटी खिलाएं, और वह भी गरम-गरम।

रंगायन में प्रेम के रंगों से सराबोर करने वाले नाटक 'ढाई आखर प्रेम' का मंचन किया गया। वरिष्ठ नाट्य निर्देशक रुचि भार्गव नरूला के निर्देशन में कलाकारों ने अपने अभिनय के हुनर से एक ही मंच पर अलग—अलग प्रेम कहानियों को साकार कर सभी को भाव विभोर कर दिया, बीच—बीच में चुटीले संवादों ने दर्शकों को खूब हंसाया। कहानी शुरू होती है प्रो. मार्तंड वर्मा और प्रियम्वदा के घर से। इनके बच्चे अब सयाने हो गए है और प्रेम उनके मन में हिलोरे मार रहा है। प्रो. मार्तंड जिन्होंने स्वयं प्रेम विवाह किया है वे बच्चों के मनोभाव को खूब समझते है। छोटी बेटी बबली को बाजा बाबू से प्रेम हुआ है और बेटे बच्चू बाबू का तीन बार दिल की बाजी हार चुके है। बबली और बाजा बाबू के विवाह में दो रुकावट आती है, बबली की मां प्रियम्वदा और बाजा के पिता पंडित जी। दोनों भागकर शादी करते है, उसके बाद दोनों परिवार एक दूसरे को सहर्ष स्वीकार कर लेते है। नाटक में मोड़ तब आता है जब बबली और बाजू का झगड़ा हो जाता है। इस बीच पंडित जी की प्रेम परिभाषा बताती है कि प्रेम एक जिम्मेदारी है और रिश्तों को निभाना एक कला है। प्रो. मार्तंड का मनोवैज्ञानिक तरीका दोनों को समझाने में कारगर साबित होता है। इसी बीच बच्चू बाबू का दिल दोबारा टूट जाता है और वह प्यार न खाने की कसमें खाता है। जन्म और मरण की तरह प्रेम होने से भी इंसान स्वयं को रोक नहीं सकता है। बच्चू बाबू को फिर प्यार होता है। इसी बीच बेटे—बेटी और नाती के सुख का स्वाद लेने वाले प्रो. मार्तंड और प्रियम्वदा और शादी की सालगिरह के बहाने प्यार भरे अपने दिनों को याद करते है। प्रियम्वदा की ख्वाहिश है कि इन प्यार भरे पलों में उसके प्राण पखेरू उड़ जाए, प्रो. इस पर कहते है तथाअस्तु। रुचि भार्गव नरूला, सर्वेश व्यास, कार्तिकेय मिश्रा, रिया माथुर, प्रतीक्षा सक्सेना, अनिमेश आचार्य और मनन शर्मा ने मंच पर सशक्त अभिनय से दर्शकों का दिल जीत लिया।

जयरंगम की शाम मध्यवर्ती में 'राग–मद' के नाम से लोक और शास्त्रीय संगीत के संगम से जन्मी एक विशेष प्रस्तुति से सजी। इस प्रस्तुति का क्यूरेशन संदीप रतनू द्वारा किया गया और यह जयपुर विरासत फाउंडेशन के सहयोग से प्रस्तुत की गयी। प्रस्तुति की शुरुआत कमायचा, वायलिन की धुन पर दोहों से हुई। यहीं लोक की परंपरा और शास्त्रीय रचना का पहला संवाद सुनाई देता है, और श्रोताओं को उस यात्रा के लिए तैयार करते हैं, जहाँ सीमाएँ धीरे-धीरे विलीन होने लगती हैं। पहली रचना “अंतरिया” है, जो राग खम्माज और विहाग में आकार लेती है। इसमें नगाड़ा, पखावज, खड़ताल, तबले, और ढोलक के साथ मिलकर एक जीवंत ताल-संवाद रचते हैं। इसके बाद उल्लास पुरोहित की आवाज़ में श्रृंगार रस के स्वर खुलते हैं और फिर राग सोरठ में आधारित गीत “लुंडाघर”। यह खंड तालों की उस समृद्ध परंपरा को सामने लाता है, जो लोक और शास्त्रीय दोनों में समान रूप से जीवित है।

लतीफ़ खान हमीरा की ढोलक, ज़ाकिर खान हमीरा की खड़ताल, दिनेश खींची का तबला, मनीष देवली का नगाड़ा और ऐश्वर्या आर्य का पखावज यह दिखाते हैं कि अलग-अलग परंपराओं से आए साज़, जब एक-दूसरे के लिए जगह बनाते हैं, तो संगीत अपने आप में पूर्ण हो जाता है। संध्या का एक अत्यंत संवेदनशील और ठहराव भरा हिस्सा रहा “सेना रा बायरिया”। इसे अंतिम प्रस्तुति की भावना के साथ प्रस्तुत किया गया। यहाँ मनभावन डांगी का एकल वायलिन, लोक धुनों के साथ संवाद करता है जैसे दो परंपराएँ बिना शब्दों के एक-दूसरे को समझ रही हों। अंतिम में सभी स्वर और साज़ , तालब खान बरना, सवाई खान, और गाजी खान जैसिंधर के लोक गायन के साथ, और शास्त्रीय तथा लोक वाद्यों के संग यह स्मरण कराया कि लोक और शास्त्रीय संगीत एक ही वृक्ष की जड़ें हैं।

---------------

हिन्दुस्थान समाचार / दिनेश

Share this story