रतलाम: दिगम्बर जैन आचार्य विद्यासागरजी महाराज को दी श्रद्धांजलि
रतलाम, 18 फ़रवरी (हि.स.)। श्री दिगम्बर जैन समाज रतलाम द्वारा आचार्य भगवंत श्री विद्यासागर महाराज के देवलोक गमन पर आचार्यश्री के श्रीचरणों में विन्यांजलि अर्पित कर सभी समाजजनों द्वारा भक्तिपूर्वक नवकार मंत्र का जाप कर श्रद्धासुमन अर्पित कर संवेदना प्रकट की गई।
श्री चंद्रप्रभ दिगम्बर जैन श्रावक संघ के प्रवक्ता मांगीलाल जैन ने बताया कि रविवार को श्री चंद्रप्रभ दिगम्बर जैन मंदिर पर निकलने वाली विनोली यात्रा व गोद भराई कार्यक्रम निरस्त कर दिए गए हैं । उन्होंने बताया कि मध्यप्रदेश शासन के प्रतिनिधि के रूप में कैबिनेट मंत्री चेतन्य काश्यप के साथ समाजसेवी ओम अग्रवाल प्रदेश शासन के विशेष विमान से डोंगरगढ़ पहुंचे और आचार्यश्री के समाधि मरण पर मध्यप्रदेशवासियों एवं समाज की ओर से श्रद्धासुमन अर्पित किए। संत शिरोमणी आचार्यश्री ने शनिवार रात 2.35 मिनिट पर सल्लेखना पूर्वक समाधि ले ली थी।
पूरा परिवार मोक्ष के मार्ग पर
आचार्यश्री का जन्म 10 अक्टूंबर 1946 को विद्याधर के रूप में कर्नाटक के वेलगांव जिले के सदलका में शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। उनके पिता मल्लपा थे जो बाद में मुनि मल्लीसागर बने। उनकी माता श्रीमंती थी जो बाद में आर्यिका समयमति बनी। विद्यासागरजी ने 30 वर्ष की उम्र में 1968 में अजमेर में आचार्य ज्ञानसागर से दीक्षा ग्रहण की। जो आचार्य शांतिसागर के शिष्य थे। 1972 में वे आचार्य बने। केवल विद्यासागरजी के बड़े भाई गृहस्थ थे। उनके अलावा घर के सभी लोग सन्यास ले चुके हैं। उनके भाई अनंतनाथ और शांतिनाथ ने आचार्य विद्यासागरजी से दीक्षा ग्रहण की थी। आचार्यश्री को विभिन्न भाषाओं का ज्ञान था तथा अनेक पुस्तकें लिखी।
आचार्यश्री का कोई बैंक खाता नहीं, कोई ट्रस्ट नहीं, कोई जेब नहीं, कोई मोह माया नहीं, अरबों रुपये जिनके उपर न्यौछावर होते हैं उन गुरूदेव ने कभी धन को स्पर्श नहीं किया। पूरे भारत में सबसे ज्यादा दीक्षा देने वाले एक ऐसे संत थे जो सभी धर्मों में पूज्यनीय रहे। पूरे भारत में एक ऐसे आचार्य थे जिनका लगभग पूरा परिवार ही संयम के साथ मोक्ष मार्ग पर चल रहा है।
आचार्यश्री का व्यकित्तव और कृतित्व काफी प्रभावी था। उन्होंने आजीवन चीनी, नमक, चटाई, हरी सब्जी, फल, अंग्रेजी ओषधि, सुखे मेवा, तेल, सभी प्रकार के भौतिक साधनों का त्याग किया। थूकने का त्याग, एक करवट में शयन बिना चादर, बिना गद्दे तकिये के सिर्फ तखत पर हर मौसम में सोते थे। सीमित अंजुली जल 24 घंटे में एक बार 365 दिन ही ग्रहण करते थे।
वे मानव समाज के उत्थान के लिए जहां सोचते थे वहीं मूक प्राणियों के लिए भी उनके ह्दय में उतना ही स्थान था।
हिन्दुस्थान समाचार/ शरद जोशी
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