अभ्यास और वैराग्य से ही मन हो सकता है वशीभूत: पुण्य सागर

अभ्यास और वैराग्य से ही मन हो सकता है वशीभूत: पुण्य सागर
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अभ्यास और वैराग्य से ही मन हो सकता है वशीभूत: पुण्य सागर


झाबुआ, 3 जून (हि.स.)। मनुष्य का मन अत्यन्त चंचल है और इसे वशीभूत किए बिना साधना पथ पर आगे बढ़ना मुश्किल है, इसलिए अभ्यास और वैराग्य के द्वारा मन को वशीभूत किया जाना चाहिए, क्योंकि यह मन ही मनुष्य के लिए बंधन और मोक्ष का कारण है।

उक्त विचार दिगंबर जैन संप्रदाय के मुनि महाराज वात्सल्य मूर्ति 108 श्री पुण्य सागर महाराज द्वारा व्यक्त किए गए हैं। जैन संत सोमवार को जिले के थान्दला स्थित त्यागी भवन में इस संवाददाता से बातचीत कर रहे थे। जैन मुनि श्री चक्र महामंडल विधान के आयोजन हेतु 6 मई को ससंघ सोनागिरी, दतिया से पैदल भ्रमण करते हुए नगर में आए थे। मुनि मंडल ने नगर से विहार कर आज राजस्थान प्रांत की सीमा में प्रवेश किया, वे राजस्थान के नगर कुशलगढ़ होते हुए 16 जून को बांसवाड़ा में प्रवेश करेंगे।

उल्लेखनीय है कि जैन मुनि पुण्य सागरजी महाराज की जन्मभूमि थांदला नगर ही है, और और उनके दीक्षा ग्रहण करने के बाद उनके पिता, माता काका और दो बड़े भाइयों सहित परिवार के आठ सदस्यों ने उनका अनुसरण करते हुए सांसारिक जीवन का त्याग कर उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया था। दीक्षा के बाद नगर में पधारे मुनि जनों का नगरवासियों ने आत्मीय स्वागत किया।

पुण्य सागर महाराज ने बातचीत के दौरान कहा कि मनुष्य अनादि काल से इस संसार में विविध प्रकार के दुःखों को भोग रहा है। भोगों में संलिप्तता और कर्मवश ही वह बारंबार जन्म के बाद मृत्यु और फिर से नूतन जन्म ग्रहण करता रहता है। इन सबसे मुक्त होने का उपाय आखिर क्या है? महाराजजी ने कहा कि संन्यास ग्रहण कर प्रभु प्राप्ति के लिए प्रयास करना। वैसे संन्यासी को भी एक ही जन्म में ईश्वर प्राप्ति संभव नहीं, ईश्वर प्राप्ति हेतु उसे भी कई बार जन्म ग्रहण करना पड़ता है। किन्तु संन्यास तो हजारों में कोई एक व्यक्ति ही ग्रहण करता है, ऐसे में एक सामान्य गृहस्थ के लिए प्रभु प्राप्ति का क्या उपाय है? इस प्रश्न पर महाराजजी ने कहा कि गृहस्थ व्यक्ति को प्रतिदिन नियमानुसार निष्ठा से और संयम नियम पूर्वक भगवान् की पूजा, आराधना और भगवद् गुणानुवाद और मंत्र जप करना चाहिए, किंतु इसके लिए संयम बहुत जरूरी है। इंद्रियों के संयम के बिना साधना पथ पर आगे बढ़ना असंभव है। महाराजजी ने इस संबंध में अभक्ष्य पदार्थों के सेवन को साधना पथ पर आगे बढ़ने हेतु बड़ी रूकावट बताते हुए मांस, मदिरा, तंबाकू और उससे बने पदार्थों के त्याग की मूलभूत आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि ऐसी निषिद्ध वस्तुओं के त्याग के बगैर कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती।

सनातन धर्म में व्याख्यायित पुनर्जन्म की अवधारणा से क्या आप सहमत हैं? महाराजजी ने कहा कि बिल्कुल, सभी व्यक्ति अपने अपने कर्मों के अनुसार बार बार जन्म ग्रहण करते हैं। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि जन्म ग्रहण करने के बाद शिशु अपनी मां का स्तन पान कैसे करने लगता है। ऐसा इसीलिए है कि उसने बार बार जन्म ग्रहण कर अपनी मां का स्तन पान किया है।

साधु समुदाय के साथ थांदला नगर में पधारे एवं महा मंत्र का लेखन कर रहे पुण्य सागरजी के शिष्य महोत्सव सागर महाराज से भी मंत्र जप एवं विधि निषेध संबंधी प्रश्न किए जाने पर उन्होंने मंत्र जप के साथ मंत्र लेखन पर जोर देते हुए कहा कि पूजा आराधना ओर मंत्र जप सभी के लिए ईश्वर प्राप्ति के श्रेष्ठ उपाय हैं, किंतु मंत्र का लेखन भी किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि मंत्र के लेखन में इंद्रियां और मन संयुक्त रूप से ईश्वर में लग जाते हैं। उन्होंने महामंत्र जप लेखन को अत्यंत महत्वपूर्ण निरुपित करते हुए उपस्थित जनों को कहा कि वे यथासंभव महामंत्र लेखन अवश्य करें।

हिन्दुस्थान समाचार/ डॉ. उमेशचन्द्र शर्मा/मुकेश

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