भगवान शिव को भी एक दिन इस कारण करनी पड़ी थी अपने पुत्र गणेश की पूजा,जानिए रोचक कथा
ऐसे कई अवसर आए जब भगवान विष्णु और शिवजी मुसीबत में फंस गए थे। तब उन्हें भी प्रथम पूज्य गणेशजी की पूजा करना पड़ी थी। आइये जानते हैं इस रोचक प्रसंग को जब भगवान शिव को भी एक दिन इस कारण करना पड़ी थी अपने ही पुत्र गणेश की पूजा।
दरअसल, असुर बलि की कृपा प्राप्त करके त्रिपुरासुर भयंकर असुर बन गया था। भगवान कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध करने के बाद उसके तीनों पुत्रों ने देवताओं से बदला लेने का प्रण कर लिया। तीनों पुत्र तपस्या करने के लिए जंगल में चले गए और हजारों वर्ष तक अत्यंत दुष्कर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। तीनों ने ब्रह्माजी से अमरता का वरदान मांगा। ब्रह्माजी ने उन्हें मना कर दिया और कहने लगे कि कोई ऐसी शर्त रख लो, जो अत्यंत कठिन हो। उस शर्त के पूरा होने पर ही तुम्हारी मृत्यु हो।
तीनों ने खूब विचार कर, ब्रह्माजी से वरदान मांगा- हे प्रभु! आप हमारे लिए तीन पुरियों का निर्माण कर दें और वे तीनों पुरियां जब अभिजित् नक्षत्र में एक पंक्ति में खड़ी हों और कोई क्रोधजित् अत्यंत शांत अवस्था में असंभव रथ और असंभव बाण का सहारा लेकर हमें मारना चाहे, तब हमारी मृत्यु हो। ब्रह्माजी ने कहा- तथास्तु!
शर्त के अनुसार उन्हें तीन पुरियां (नगर) प्रदान की गईं। तारकाक्ष के लिए स्वर्णपुरी, कमलाक्ष के लिए रजतपुरी और विद्युन्माली के लिए लौहपुरी का निर्माण विश्वकर्मा ने कर दिया। इन तीनों असुरों को ही त्रिपुरासुर कहा जाता था। न तीनों भाइयों ने इन पुरियों में रहते हुए सातों लोको को आतंकित कर दिया। वे जहां भी जाते समस्त सत्पुरुषों को सताते रहते। यहां तक कि उन्होंने देवताओं को भी, उनके लोकों से बाहर निकाल दिया।
किसी में भी त्रिपुरासुर का वध करने की शक्ति नहीं थी तब भगवान शिव ने यह जिम्मा उठाया। सभी देवताओं ने शिव को अपना-अपना आधा बल समर्पित कर दिया। अब उनके लिए रथ और धनुष बाण की तैयारी होने लगी जिससे रणस्थल पर पहुंचकर तीनों असुरों का संहार किया जा सके। पृथ्वी को ही भगवान् ने रथ बनाया, सूर्य और चन्द्रमा पहिए बन गए, सृष्टा सारथी बने, विष्णु बाण, मेरूपर्वत धनुष और वासुकी बने उस धनुष की डोर।
इस प्रकार असंभव रथ तैयार हुआ और संहार की सारी लीला रची गई। जिस समय भगवान् उस रथ पर सवार हुए, तब सकल देवताओं के द्वारा सम्हाला हुआ वह रथ भी डगमगाने लगा। तभी विष्णु भगवान् वृषभ बनकर उस रथ में जा जुड़े। उन घोड़ों और वृषभ की पीठ पर सवार होकर महादेव ने उस असुर नगर को देखा और पाशुपत अस्त्र का संधान कर, तीनों पुरों को एकत्र होने का संकल्प करने लगे।
परंतु भगवान शिव हर तरह के प्रयास करने के बाद भी उन असुरों का वध करने में असफल रहे तो नारदजी ने कहा कि आप गणेशजी की अर्चना किए बगैर त्रिपुरासुर से युद्ध करने चले गए थे। इसीलिए आप अपने युद्ध में सफल नहीं हो पा रहे हैं। इसके बाद शिवजी ने अपने पुत्र गणेश जी का पूजन करके उन्हें लड्डुओं का भोग लगाया और दोबारा त्रिपुरासुर पर आक्रमण किया। इसके बाद ही वे लक्ष्य भेदने में सफल हुए।
उस अमोघ बाण में विष्णु, वायु, अग्नि और यम चारों ही समाहित थे। अभिजित् नक्षत्र में, उन तीनों पुरियों के एकत्रित होते ही भगवान शंकर ने अपने बाण से पुरियों को जलाकर भस्म कर दिया और तब से ही भगवान शंकर त्रिपुरांतक बन गए। त्रिपुरासुर को जलाकर भस्म करने के बाद भोले रुद्र का हृदय द्रवित हो उठा और उनकी आंख से आंसू टपक गए। आंसू जहां गिरे वहां 'रुद्राक्ष' का वृक्ष उग आया। 'रुद्र' का अर्थ शिव और 'अक्ष' का आंख अथवा आत्मा है।

