वाराणसी के छात्र तमिलनाडु में सीख रहे हैं मूर्तिकला के गुर,पीछे छिपे दर्शन का बोध

 


—काशी तमिल संगमम में सदियों पुरानी दक्षिण भारतीय शिल्प परंपरा से हो रहे रूबरू

वाराणसी,27 दिसंबर (हि.स.)। काशी-तमिल संगमम के चौथे संस्करण में वाराणसी से तमिलनाडु गए विद्यार्थियों का एक दल इन दिनों वहां के पारंपरिक मूर्तिकला के सूक्ष्म गुर सीख रहा है। सदियों पुरानी दक्षिण भारतीय शिल्प परंपरा से साक्षात्कार कर रहे ये छात्र न केवल कला की तकनीक समझ रहे हैं, बल्कि उसके पीछे छिपे दर्शन, अनुशासन और सांस्कृतिक मूल्यों से भी परिचित हो रहे हैं।

शनिवार को प्रशिक्षण के दौरान विद्यार्थियों को पत्थर और धातु पर आधारित मूर्तिकला की बारीकियां समझाई गईं। स्थानीय कारीगरों और शिल्पगुरुओं ने उन्हें आकृति निर्माण, संतुलन, अनुपात, औज़ारों के उपयोग और धैर्यपूर्ण कार्यशैली का व्यावहारिक ज्ञान दिया। छात्रों ने जाना कि तमिल मूर्तिकला केवल शिल्प नहीं, बल्कि भक्ति, सौंदर्यबोध और आध्यात्मिक चेतना का संगम है। मिट्टी को कई आकार देना आसान नहीं होता है। यह जानकारी कार्यक्रम के नोडल संस्थाओं की ओर से दी गई। बताया गया कि काशी के छात्रों को उत्तर और दक्षिण भारत की कलात्मक परंपराओं के बीच की समानताओं और विशिष्टताओं को समझने का अवसर दिया गया।

छात्रों ने कहा कि मूर्तिकला सीखते समय उन्हें काशी की प्राचीन शिल्प परंपराओं की भी याद आई, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि भारत की विविधता के बावजूद उसकी सांस्कृतिक आत्मा एक ही सूत्र में बंधी है। काशी-तमिल संगमम 4.0 का यह प्रयास युवाओं को पुस्तकीय ज्ञान से आगे ले जाकर जीवंत परंपराओं से जोड़ने का माध्यम बन रहा है। भाषा, कला और संस्कृति के इस आदान-प्रदान से न केवल सीखने की प्रक्रिया समृद्ध हो रही है, बल्कि राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक समझ भी और मजबूत हो रही है।

इस विशेष यात्रा में सहभागी बने युवाओं के लिए यह अनुभव केवल भ्रमण तक सीमित नहीं रहा, बल्कि सीख, आनंद और खोज का एक जीवंत अवसर बनकर सामने आया। साझा गतिविधियों से लेकर पवित्र स्थलों के दर्शन तक, हर क्षण में उत्साह, भावनात्मक जुड़ाव और गहरे अर्थ की अनुभूति देखने को मिली। प्रतिभागियों को केवल अपने दर्शनीय स्थलों से ही आकर्षित नहीं किया, बल्कि आत्मचिंतन, प्रेरणा और संस्कृति–परंपरा से गहरे जुड़ाव का अवसर भी प्रदान किया। घाटों की शांति, मंदिरों की आस्था और गलियों की जीवंतता ने युवाओं के मन में भारतीय सांस्कृतिक विरासत की नई समझ विकसित की। यात्रा के दौरान समर्पित देखभाल, आपसी सहयोग और सुविचारित कार्यक्रमों ने पूरे अनुभव को और भी विशेष बना दिया।

हिन्दुस्थान समाचार / श्रीधर त्रिपाठी