यूनान, रोम, मिस्र, यूरोप के धर्मग्रंथ या इतिहास में जीवन पद्धति का उल्लेख नहीं : प्रो. विनय पांडेय
गोरखपुर, 18 सितम्बर (हि.स.)। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. विनय कुमार पांडेय ने कहा कि यूनान, रोम, मिस्र, यूरोप समेत दुनिया के किसी भी देश के धर्मग्रंथ या इतिहास में जीवन पद्धति का उल्लेख नहीं है। जबकि संस्कृत से प्रस्फुटित वेदों, पुराणों से बनी भारतीय संस्कृति में ही मूल्यपरक जीवन पद्धति का वर्णन है। भारतीय संस्कृति ही एकमात्र ऐसी संस्कृति हैं, जिसमें परिवार, समाज, राष्ट्र और यहां तक कि दुश्मनों के प्रति मर्यादा बताई गई है। अमर्यादित आचरण तभी होता है, जब हम अपनी संस्कृति से विमुख होते हैं। मर्यादित आचरण का भान कराने वाली हमारी संस्कृति संस्कृतमूलक है और हमें अपनी भारतीय संस्कृति और संस्कृत पर गर्व होना चाहिए।
बुधवार को युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ महाराज की 55वीं और राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज की 10वीं पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में समसामयिक विषयों के सम्मेलनों की श्रृंखला के चौथे दिन ‘संस्कृत एवं भारतीय संस्कृति’ विषयक सम्मेलन को बतौर मुख्य अतिथि सम्बोधित कर रहे प्राे विनय कुमार नेे कहा कि संस्कृत पढ़ने और समझने वाला कभी भी भारतीय संस्कृति नहीं छोड़ सकता है। क्योंकि, संस्कृत का गहरा प्रभाव पड़ता है और संस्कृत से बनी भारतीय संस्कृति मन-मस्तिष्क को शुद्ध करती है। भारतीय संस्कृति विकास और ज्ञान के समवेत स्वरूप को लेकर चलती है। हमारे यहां ज्ञान और विज्ञान साथ-साथ चले हैं। अध्यात्म, धर्म भारतीय संस्कृति के मूल अंग हैं।
प्रो. पांडेय ने कहा कि संस्कृति को समझने के लिए हमें प्रकृति और विकृति को भी समझना पड़ेगा। उदाहरण के लिए भूख लगना प्रकृति है। भूख लगने पर जब समूह में लोगों का भोजन कोई एक छीन ले तो यह विकृति होगी। जबकि सबके साथ मिल बांटकर खाना या फिर खुद भूखे रहकर अन्य जरूरतमंद लोगों को खिला देना संस्कृति कही जाएगी। और, यही भाव भारतीय संस्कृति का है। आज जब पूरा विश्व अर्थवाद और बाजारवाद की चपेट में है, दूसरों का अधिग्रहण न करने का ज्ञान देने वाली भारतीय संस्कृति ही मार्गदर्शक नजर आती है। इसलिए आज पूरी दुनिया भारतीय संस्कृति का अनुपालन करने के लिए लालायित है।
--दो हजार वर्ष पूर्व थे दो ही विज्ञान, ज्योतिष और आयुर्वेद
प्रो. पांडेय ने कहा कि भारतीय संस्कृति ने ज्ञान आधारित विज्ञान को अपनाया। उसने हमेशा यही माना है कि विज्ञान जरूरी है लेकिन हमें विनाश वाला विज्ञान नहीं चाहिए। पुरातन भारतीय संस्कृति इसीलिए पेड़ों को भी देवता मानती थी कि उसे पर्यावरण विज्ञान का संरक्षण करना था। उन्होंने कहा कि दो हजार वर्ष पूर्व दो ही विज्ञान थे, भारतीय ज्योतिष और आयुर्वेद। इसके अलावा दुनिया में और कोई विज्ञान नहीं था।
--संस्कृत से प्रस्फुटित हुई है भारतीय संस्कृति : प्रो. कमलचंद्र
सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर के पूर्व आचार्य प्रो. कमलचचंद्र योगी ने कहा कि आज एक बार फिर पूरा विश्व भारत की आध्यात्मिक संस्कृति की महत्ता को स्वीकार कर रहा है। यह आध्यात्मिक संस्कृति, संस्कृत से ही प्रस्फुटित हुई है। संस्कृत और भारतीय संस्कृति को कभी विलग नहीं किया जा सकता है। संस्कृत ने न सिर्फ अध्यात्म बल्कि जीवन के भौतिक पक्ष का भी मार्गदर्शन करने वाले ज्ञान का प्रादुर्भाव किया है। आध्यात्मिक और भौतिक दोनों ही दृष्टिकोण से यदि भारतीय संस्कृति दुनिया में बहुमूल्य है तो इसका श्रेय भी संस्कृत को जाता है।
सम्मेलन की अध्यक्षता गोरखनाथ मंदिर के प्रधान पुजारी योगी कमलनाथ, आभार ज्ञापन महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद के सदस्य डॉ. शैलेंद्र प्रताप सिंह, संचालन माधवेंद्र राज एवं वैदिक मंगलाचरण डॉ रंगनाथ त्रिपाठी ने किया। इस अवसर पर दिगम्बर अखाड़ा, अयोध्या के महंत सुरेशदास, नासिक महाराष्ट्र से पधारे योगी डॉ. विलासनाथ, कटक उड़ीसा से आए महंत शिवनाथ, अयोध्या से आए महंत राममिलनदास, काशी से पधारे महामंडलेश्वर संतोष दास उर्फ सतुआ बाबा, नीमच मध्य प्रदेश से आए योगी लालनाथ, देवीपाटन शक्तिपीठ, तुलसीपुर के महंत मिथलेशनाथ, जबलपुर से आए महंत नरसिंह दास, कालीबाड़ी के महंत रविन्द्रदास, दिग्विजयनाथ पीजी कॉलेज के प्राचार्य डॉ. ओमप्रकाश सिंह आदि प्रमुख रूप से उपस्थित रहे।
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हिन्दुस्थान समाचार / प्रिंस पाण्डेय