कभी कुख्यात सुल्ताना के नाम से जाना जाता था बिजनौरडकैती डालने की सूचना पहले दे देता था सुल्ताना
बिजनौर,8 जुलाई ( हि.सं.)। ब्रिटिश शिकारी एवं मशहूर लेखक जिम कॉर्बेट ने अपनी किताब माई इण्डिया में लिखा है कि सुल्ताना डाकू क़े डकैतों के पास उस दौर में भी अत्याधुनिक हथियार हुआ करते थे व उसके डाकू दल में सैकड़ों प्रशिक्षित डकैत शामिल थे। ब्रिटिश काल में सुल्ताना डाकू की भातू जनजाति को आपराधिक करार दिए जाने के बाद उसके पूरे गैंग को नजीबाबाद किले की चारदीवारी में कैद कर सुधरने का अवसर दिया गया था। सुल्ताना अपनी युवा पत्नी और नवजात बेटे सहित सैकड़ों अन्य भातुओं के साथ नजीबाबाद के किले में कैद था। एक रात वह किले की दीवारों को फांदकर भाग निकला, जैसा कि कोई भी नौजवान और हौसले वाला इंसान करता है।
किले के बाहर सुल्ताना को उसके जैसे सैकड़ों साथी गांव जट्टीवाला में मिले। वे सब हथियारबंद बदमाश थे क्योंकि उस दिन सुल्ताना डाकू की गैंग ने डकैती डालने की सरेआम घोषणा कर रखी थी। उस दौर में डकैत तराई और भावर के जंगलों में भटकते और पूरब में गोंडा से लेकर सहारनपुर तक डाका डालते थे। उस दौर में सुल्ताना का गैंग बिजनौर के गांव जालपुर तथा गांव बनियो के रामपुर में भी डकैती डाल चुका था।
जिम कार्बेट लिखते हैं जब मैंने पहली बार सुल्ताना डाकू का नाम तब सुना तब मैं गडप्पू के जंगलों में कैंप कर रहा था। गडप्पू का यह क्षेत्र कालाढुंगी के नजदीक था जो सर्दियों में मेरा घर हुआ करता था। उस समय पर्सी विंडहैम कुमाऊं कमिश्नर हुआ करते थे। नजीबाबाद से लेकर राबर्स केव तराई भावर का जंगल सुल्ताना डाकू का ठिकाना हुआ करता था। सुल्ताना डाकू से परेशान ब्रिटिश सरकार के विंडहैम कमिश्नर ने युवा पुलिस अधिकारी फ्रेडरिक यंग की मदद मांगी थी। ब्रिटिश सरकार ने विंडहैम की इल्तिजा मान ली और सुलताना डाकू को पकड़ने के लिए विशेष दस्ते पर मुहर लगा दी। फ्रेडरिक यंग उस दस्ते के मुखिया थे और उन्हें अपनी पसंद के पुलिसकर्मियों को चुनने की छूट दी गयी थी, जिसमें गांव बिजनौर जनपद के भी कई लोग थे। जब पहली बार सुल्ताना को पकड़ने की कोशिश सर फ्रेडरिक यंग द्वारा जंगलों में की गई, तब उस समय वन विभाग जंगल के एक हिस्से को साफ कर रहा था। उन मजदूरों के एक ठेकेदार को सुल्ताना को न्योता देने को कहा गया था तब सुल्ताना का पड़ाव काला ढूंगी के आस-पास ही था। उस दिन सुल्ताना को भोज और उसके बाद नाच-गाने के कार्यक्रम का न्योता दिया गया था। सुल्ताना और उसके साथियों ने यह बुलावा मंजूर भी कर लिया था लेकिन पहले मदिरा और भोज और बाद में नाच का आयोजन रखने को कहा गया। सुल्ताना ने यह भी कहा कि उसके साथी पेट भरने के बाद नाच देखने का कहीं अधिक लुत्फ ले पाएंगे। उस दिन नाच गाने के जश्न की तैयारियां होने लगीं। ठेकेदार अमीर आदमी था, उसने रामनगर और काशीपुर के अपने दोस्तों को भी न्योता दिया था क्योंकि मशहूर नाचने वालियों को बुलवाया गया था। खाने-पीने का जबरदस्त इंतजाम था, दारू पीने का इंतजाम खासतौर पर डकैतों के लिए था। सारे सामान खरीदकर बैलगाड़ियों से कैंप तक लाए गये थे। आयोजन की रात मेहमान आए और दावत शुरू हुई। अक्सर ऐसे आयोजनों में मेहमान अलग-अलग गोल बनाकर बैठते हैं, रोशनी के लिए कुछ अलाव और कुछ लालटेन भी थी। उस दिन सुल्ताना और उसके साथियों ने जमकर खाया और छककर शराब पी। दावत जब खत्म हुई तब सुल्ताना अपने मेजबान के कंधे पर हाथ रख कर एक किनारे ले गया और मेहमाननवाजी के लिए उसका शुक्रिया अदा किया। उसके बाद उसने ठेकेदार से कहा कि हमें लंबा सफर तय करना है, इसलिए नाच देखना संभव नहीं होगा। जाने से पहले उसने एक और गुजारिश की थी कि दावत और जश्न जारी रहना चाहिये। उस दौर में सुल्ताना की गुजारिश फरमान होती थी क्योंकि किसी में हिम्मत नही होती कि सुल्ताना की बात न माने। उस दिन के नाच-गाने में मुख्य वाद्य ढोलक था। ढोलक की ताल ही फ्रेडरिक के लिए सिग्नल थी। सिग्नल मिलते ही फ्रेडरिक को पहले की पोजिशन छोड़कर पुलिसकर्मियों के साथ कैंप को चारों ओर से घेर लेना था। इसमें से एक दस्ते का नेतृत्व एक फॉरेस्ट गार्ड कर रहा था, जो रात के अंधेरे में रास्ता भटक गया। इसी टोली को सुल्ताना का रास्ता रोकना था लेकिन वह टोली रात भर भटकती रही। वैसे सच यह है कि फॉरेस्ट गार्ड कभी सुल्ताना के साथ जंगल में रह चुका था और समझदार इंसान था, अगर उसे सुल्ताना से प्लान में तब्दीली की गुजारिश न मिली होती तो वह जानबूझकर रास्ता नहीं भूलता। इससे फ्रेडरिक को सिग्नल मिलने से पहले सुल्ताना को वहां से निकलने का मौका मिल गया और सुल्ताना अपनी गैंग के साथ खिसक लिया। उसके बाद जब फ्रेडरिक का दस्ता मुश्किल रास्ते से घने जंगलों से होकर कैंप पर पहुंचा तो वहां कुछ डरी हुई नचनियों और ठेकेदार के हैरान-परेशान दोस्तों के अलावा कोई न मिला।
रामनगर के जंगलों से भागने के बाद सुल्ताना देहरादून की ओर पहुंचा तो वहां उसने थोड़े समय में जो डाके डाले, उससे उसकी टोली को एक लाख रुपये के सोने के जेवरात मिले। इसके बाद वह संयुक्त प्रांत के घने जंगलों में लौट आया। देहरादून से लौटते वक्त उसे गंगा नदी पार करनी थी। उस समय गंगा नदी पर इक्का-दुक्का ही पुल बने हुए थे। पुलिस को खबर थी कि सुल्ताना देहरादून की ओर से लौटेगा, इसलिए जिन पुलों से उसके लौटने की संभावना थी, उन पर सख्त पहरा था। लौटते वक्त सुल्ताना उस पुल से गुजरा जिसके बारे में उसे अपने मुखबिरों से पता चला था कि वहां पुलिस तैनात नहीं है। रास्ते में एक गांव पड़ा, जहां उसे गीत-संगीत सुनाई पड़ा। सुल्ताना को मालूम हुआ कि उस गांव में एक अमीर आदमी के बेटे की शादी हो रही है। गांव के बीचोबीच बाराती और मेहमान इकट्ठा थे। जब वहां जगमगाती मशालों के बीच सुल्ताना पहुंचा तो हलचल मच गयी, तब उसने उन लोगों से बैठे रहने को कहा। सुल्ताना ने फिर कहा कि अगर वे लोग उसकी बात मान लें तो डरने की कोई जरूरत नहीं। इसके बाद उसने गांव के मुखिया और दूल्हे के पिता को बुलाया। उसने मुखिया से वह बंदूक मांगी जो उसने हाल ही में खरीदी थी, इसके साथ अपने आदमियों के लिए उसने 10 हजार रुपये मांगे। बंदूक और पैसा फौरन उसे सौंप दिया गया, जिसके बाद सुल्ताना और उसके साथी गांव से लौट गए।अगले दिन सुल्ताना को पता चला कि उसके साथी भूरा पहलवान ने दुल्हन को अगवा कर लिया है।
पसंद आई थी चतुराई, सेवाभाव देख लूटने से कर दिया था इनकार
बताया जाता है कि सुल्ताना डाकू क़े जमाने में खूनीबड़, मवाकोट कोटद्वार भावर क्षेत्र में एक जागीरदार और मालदार जोशी हुआ करते थे। मालदार जोशी (पितृशरण जोशी पूर्व प्रधान मवाकोट क़े दादा) बहुत चतुर किस्म क़े व्यक्ति थे। उन्हें लूटने क़े लिए डाकू सुल्ताना ने दो बार चिट्ठी भिजवाई कि वह फलां तारीख उन्हें लूटने आ रहा है, तो पूरा परिवार घबरा गया व सारे क्षेत्र क़े लोग सुल्ताना डाकू क़े नाम से भयभीत होकर दिन में ही दुबक गये। पंडित जोशी ने माली की वेशभूषा बनाई व डकैतों क़े लिए मुर्गा व भात बनाने में जुट गये। जैसे ही अर्धरात्रि में डकैतों का काफिला मालदार जोशी क़े यहाँ पहुंचा। पंडित जोशी हाथ जोड़कर खड़ा होकर बोला ‘साहब, आपकी चिट्ठी मिलते ही मालदार साहब माल लपेटकर परिवार सहित पहाड़ क़े किसी गाँव चले गये व मुझे हुक्म दे गये कि मैं आपकी खातिरदारी में कोई कमी न छोडूं। आपके लिए भात मुर्गा बना है व रास्ते क़े लिए भी चार जिंदा मुर्गा आपको देने को कहा है। सुना है आप गरीबों क़े मसीहा हैं इसलिए मैं जान की परवाह न कर आपकी सेवा में लगा हूँ हुजूर…’! डाकू सुल्ताना व उसके साथियों ने दावत उड़ाई व ठहाके लगाते हुए बोला चल पंडत… तुझे माफ़ किया। तेरी चतुराई मुझे पसंद आई। मैं तुझे पहले ही पहचान गया था लेकिन तेरे सेवाभाव से हम खुश हुए। अब तुझे नहीं लूटूंगा लेकिन दुबारा कभी इधर से आये तो तेरी दावत ख़ाकर ही जाएंगे।
बड़ पर टांग दी थी ठाकुर उमराव सिंह की लाश
कोटद्वार-भाबर क्षेत्र में जमीदार उमराव सिंह क़े बारे में प्रचलित है। बताया जाता है कि सुल्ताना डाकू ने करीब 1915 से 1920 के बीच कोटद्वार-भावर के प्रसिद्ध जमीदार उमराव सिंह के घर चिट्ठी भेजी कि हम उक्त तारीख को उनके घर लूट करने आ रहे हैं। जागीरदार व जमींदार उमराव सिंह को यह काफी नागवार गुजरा व उन्हें चिट्ठी पढ़कर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने इसकी सूचना पुलिस को देने की योजना बनाई। भावर से करीब 20 किमी दूर कोटद्वार में पुलिस थाना था। ठा. उमराव सिंह ने अपने घर में काम करने वाले एक व्यक्ति को चिट्ठी दी और कहा कि वह उनका घोड़ा ले जाकर कोटद्वार थाने में यह चिट्ठी देकर आ। उस दौर में भावर से होते हुए कोटद्वार सनेह से कुमाऊं तक कंडी रोड थी। कुछ लोग बताते हैं कि कंडी रोड हिमांचल से हरिद्वार और कोटद्वार से कुमाऊं होते हुए नेपाल तक जाती थी। जो वन विभाग के अंतर्गत आती थी। इस रोड पर बैल गाड़ी आदि चलती थी, जिसमें सिगड्डी क्षेत्र क़े जंगलों से बांस काटकर ले जाया जाता था। ठाकुर उमराव सिंह का नौकर जब घर से कोटद्वार घोड़े पर जा रहा था, तब दुर्गापुरी के पास नहर किनारे सुल्ताना डाकू और उसके साथी नहा रहे थे। डाकू और उसके साथी एक विशेष वेशभूषा में होते थे, जो पुलिस की वर्दी की तरह लगती थी। सुल्ताना ने घोड़े पर किसी को जाते देखा तो उसे रोका। उसने कहा कि घोड़ा तो किसी जागीरदार का लग रहा है, लेकिन इस पर नौकर कहां जा रहा है। उसे शक हुआ तो कड़क आवाज में पूछा कि कहाँ जा रहे हो? नौकर को लगा यही पुलिस वाले हैं तो उन्हें सारा भेद बता दिया। डाकू सुल्ताना ने कहा कि अच्छा हुआ, हम यहीं मिल गये वरना खामख्वाह तुम्हें कोटद्वार जाना पड़ता। कहो जागीरदार का क्या संदेश है? नौकर ने चिट्ठी सुल्ताना डाकू को थमा दी और घर लौट गया। चिट्ठी पढ़ कर सुल्ताना भड़क गया। नौकर के घर पहुंचने पर उमराव सिंह ने पूछा कि चिट्ठी दे दी पुलिस को और तू जल्दी वापस आ गया। उसने बताया कि पुलिस वाले दुर्गापुरी के पास ही मिल गए थे। सुल्ताना भी वहां से सीधे उमराव सिंह के घर पहुंच गया और उन्हें गोली मार दी और उनकी लाश लाकर गाँव क़े वटवृक्ष में टांग दी। तब से इस गाँव का नाम ही खूनीबड़ पड़ गया। भले ही ठाकुर उमराव सिंह क़े नाम पर आज भी उमरावपुर व उमराव नगर है, लेकिन खूनी बड़ आज भी डाकू सुल्ताना क़े जुल्मों की कहानी सुनाता नजर आता है। जहाँ अमीर लोग सुल्ताना डाकू को दुर्दांत डकैत मानते थे वहीं गरीब उसे मसीहा कहते थे क्योंकि वह अक्सर अमीरों का माल लूटकर गरीबों में बाँट देता था। जिम कार्बेट की पुस्तक “माय इंडिया” क़े अध्याय सुल्ताना : इंडियाज रॉबिन हुड” नथाराम शर्मा गौड़ की पुस्तक “ सुल्ताना डाकू गरीबों का प्यारा” पेंग्वेन इंडिया में छपी लेखक सुजीत श्राफ की पुस्तक “कनेक्शन ऑफ़ सुल्ताना डाकू” सहित कई लेखकों की पुस्तकों में सुल्ताना डाकू सचमुच ब्रिटिश काल में किसी रॉबिन हुड से कम नहीं था।
आगरा जेल में 10 जून 1924 को फांसी दी गई थी सुल्ताना को
ब्रिटिश सरकार क़े लिए सिरदर्द बने सुल्ताना डाकू को जिन्दा या मुर्दा गिरफ्तार करने क़े लिए टिहरी रियासत क़े राजा नरेंद्र शाह के अनुरोध पर ब्रिटिश सरकार ने सुल्ताना को पकड़ने के लिए एक कुशल और दुस्साहसी अफसर फ्रेडी यंग को बुलाया गया। आगे जाकर फ्रेडी यंग का नाम इतिहास में सुल्ताना डाकू के साथ अमिट रूप से दर्ज हो गया क्योंकि लम्बे संघर्ष के बाद फ्रेडी ने न केवल सुल्ताना को धर दबोचा, उसने सुल्ताना की मौत के बाद उसके बेटे और उसकी पत्नी की जैसी सहायता की, वह अपने आप में एक मिसाल है। तीन सौ सिपाहियों और पचास घुड़सवारों की फ़ौज लेकर फ्रेडरिक यंग ने नजीबाबाद हरिद्वार के बीच गैण्डीखाता में ताबड़तोड़ चौदह बार छापेमारी की और अंतत 14 दिसंबर 1923 को सुल्ताना को गैण्डीखाता के जंगलों से गिरफ्तार कर हल्द्वानी की जेल में बंद कर दिया। सुल्ताना के साथ उसके साथी पीताम्बर नन्नू पहलवान नरसिंह बलदेव और भूरे भी पकड़े गए थे। इस पूरे मिशन में सर जिम कॉर्बेट ने भी यंग साहब की मदद की थी। नैनीताल की अदालत में सुल्ताना पर मुकदमा चलाया गया और इस मुकदमे को ‘नैनीताल गन केस’ कहा गया। बताया जाता है कि उन्हें आखिरी पेशी पर आगरा ले जाया गया जहाँ उन्हें 8 जून 1924 को फांसी की सजा सुनाई गई और आगरा जेल में ही सुलताना को 10 जून 1924 को फांसी पर लटका दिया गया था। सुल्ताना की मौत के बाद उसे याद करते हुए जिम कॉर्बेट ने ‘माई इंडिया’ के अध्याय ‘सुल्ताना: इण्डियाज़ रोबिन हुड’ में यह भी लिखा है “समाज मांग करता है कि उसे अपराधियों से बचाया जाय, और सुल्ताना एक अपराधी था। उस पर देश के कानून के मुताबिक़ मुकदमा चला, उसे दोषी पाया गया और उसे फांसी दे दी गयी। जो भी हो, इस छोटे से आदमी के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है जिसने तीन साल तक सरकार की ताकत का मुकाबला किया और जेल की कोठरी में अपने व्यवहार से पहरेदारों का दिल जीता।” इस बात के प्रमाण हैं कि फ्रेडी यंग ने सुल्ताना की पत्नी और उसके बेटे को भोपाल के नज़दीक पुनर्वासित किया। बाद में उसने उसके बेटे को अपना नाम दिया और उसे पढ़ने के लिए इंग्लैण्ड भेजा। कहते हैं फ्रेडी यंग ने ऐसा करने का सुल्ताना से वादा भी किया था।
‘इतना मरियल सा आदमी सुल्ताना डाकू’
एक मामूली सी कद काठी का सांवला सा सुल्ताना डाकू जब पकड़ में आया तो लोगों की भीड़ जमा हो गई। सब अचम्भे में थे कि इतना मरियल सा आदमी है सुल्ताना डाकू। इसी सुल्ताना डाकू पर स्वतंत्र भारत में नौटंकी रची गई व इसका जगह-जगह प्रदर्शन होता रहा। यह नौटंकी अकील पेंटर नामक लेखक की पुस्तक “शेर -ए –बिजनौर : सुल्ताना डाकू” क़े नाम से प्रचलित थी। यही नहीं सन 1956 में मोहन शर्मा ने जयराज और शीला रमानी को लेकर आर. डी. फिल्म्स के बैनर तले ‘सुल्ताना डाकू’ फिल्म का निर्माण किया, उसके बाद 1972 में निर्देशक मुहम्मद हुसैन ने भी फिल्म “सुल्ताना डाकू” बनाई जिसमें मुख्य किरदार दारासिंह ने निभाया था। अजीत और हेलेन ने फिल्म में दूसरे किरदार निभाये थे। मुरादाबाद के हरथला कि भातू काॅलोनी में रह रहे सुल्ताना डाकू के वंशज कहते हैं कि हर कोई सुल्ताना डाकू पर लेख तो सब लिखते हैं परंतु कोई भी हमें नहीं बताता कि सुल्ताना के वंशज, पोते, पड़ पोते ज भी भातू बस्ती में रहते हैं जिनमें पोते विकट सिंह, पड़पोता, दुर्योधन सिंह, सीमा सिंह, राजन सिंह, सरिता सिंह, संजय सिंह, हुश्ना सिंह व झड़पोते विशाल सिंह शामिल है। फिर प्रश्न यह उठता है कि क्या सुल्ताना डाकू का बेटा इंग्लैंड शिफ्ट हो गया था जिसे फ्रेडरिक यंग ले गये थे |
हिन्दुस्थान समाचार/ नरेन्द्र/सियाराम