लोस चुनाव: कैडर वोटर की नाराजगी को नहीं भांप पाई भाजपा

 


मेरठ, 05 जून (हि.स.)। उत्तर प्रदेश में भाजपा के खराब प्रदर्शन के कई कारण हैं। संविधान और आरक्षण को खतरा बताकर विपक्षी दलों ने भाजपा के लिए माहौल असहज कर दिया। उस पर कैडर वोटर की नाराजगी को नहीं भांपना भी भाजपा के लिए भारी पड़ गया और उसे इतनी बुरी हार झेलनी पड़ी। कोई सुनवाई न होने के कारण भाजपा का निष्ठावान कार्यकर्ता भी बूथ पर पहले की तरह काम नहीं कर पाया।

श्रीराम मंदिर आंदोलन के बाद भाजपा के साथ जुड़ने वाली अगड़ी व अन्य पिछड़ी जातियां धीरे-धीरे पार्टी का कैडर वोटर बन गई। इनमें क्षत्रिय, त्यागी, भूमिहार, वैश्य, ब्राह्मण, सैनी, कश्यप, प्रजापति आदि जातियां भाजपा का कैडर वोटर बन गई। जातियों के इतर हिन्दुत्व की भावना से ओतप्रोत यह जातियां भाजपा के साथ जुड़ी रही। समय बदला और 2014 में केंद्र में पहली बार भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए। इसके बाद 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रचंड बहुमत से सरकार बन गई। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा-रालोद के महागठबंधन के बीच भी भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन किया। इसी बीच सरकार की नीतियों को लेकर भाजपा के कैडर वोटर में नाराजगी पनपने लगी, जिसे भाजपा नेताओं की अनदेखी ने और हवा दी। 2022 के विधानसभा चुनाव में भी कैडर वोटर की नाराजगी के कारण भाजपा की सीटों में कमी आई, लेकिन पार्टी नेतृत्व लगातार बढ़ती नाराजगी को दूर नहीं कर पाया। केंद्र सरकार की आयुष्मान कार्ड, निःशुल्क राशन वितरण योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना की पात्रता की शर्तों से कैडर वोटर नाराज होता चला गया। 2024 के लोकसभा चुनाव में क्षत्रिय और त्यागी समाज की नाराजगी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खुलकर सामने आई। क्षत्रिय समाज ने कई सभाएं आयोजित कर टिकट वितरण को लेकर अपनी नाराजगी जताई, लेकिन उसे दूर करने की बजाय उसकी अनदेखी की गई। नोएडा के श्रीकांत त्यागी प्रकरण के बाद भी अधिकांश त्यागी समाज भाजपा के साथ जुड़ा रहा, लेकिन नाराजगी ने कई सीटों पर अपना असर दिखाया।

मुजफ्फरनगर से भाजपा उम्मीदवार डॉ. संजीव बालियान के व्यवहार और बयानों ने आग में घी का काम किया। सरधना के पूर्व विधायक संगीत सोम ने खुलकर संजीव बालियान का विरोध किया। पार्टी का आला नेतृत्व भी इस विवाद को दूर नहीं कर पाया। मुजफ्फरनगर में त्यागी समाज के निर्दलीय उम्मीदवार सुनील त्यागी भी संजीव बालियान की हार के कारण बने। यहां पर सैनी समाज के लोगों ने भी भाजपा का विरोध किया। रालोद से गठबंधन के बाद भी भाजपा को कैराना सीट पर हार का सामना करना पड़ा। यहां पर भी क्षत्रिय समाज के कई मतदाताओं ने सपा उम्मीदवार इकरा हसन के पक्ष में मतदान किया। पैराशूट उम्मीदवार उतारने के कारण मेरठ में भी भाजपा के समर्पित कार्यकर्ता बहुत निराश दिखाई दिए और इसी कारण अरुण गोविल बहुत कम अंतर से चुनाव जीत पाए। गाजियाबाद में शहर विधायक अतुल गर्ग को ही सांसद का चुनाव लड़ाने का असर यह हुआ कि उनकी जीत का अंतर जनरल वीके सिंह के रिकाॅर्ड से काफी कम हो गया।

केंद्र और राज्य में भाजपा सरकार होने के बाद भी तमाम आयोग और समितियां खाली पड़ी हैं, जिन पर पार्टी कार्यकर्ताओं का समायोजन होना था। कुछ नेताओं को छोड़कर पार्टी कार्यकर्ता अपने समायोजन की बाट जोहता रह गया, जो निराशा का कारण बन गया, जबकि बाहर से आए नेताओं को दर्जा राज्य मंत्री के पदों से नवाजा जाता रहा। जनप्रतिनिधियों द्वारा सम्मान नहीं मिलने से पार्टी कार्यकर्ता निराश हो गए और लोकसभा चुनाव में मन से कार्य नहीं कर पाए।

स्थानीय निकाय के चुनाव हुए एक वर्ष बीतने के बाद भी भाजपा कार्यकर्ता मनोनीत सभासद या पार्षद बनने का इंतजार ही कर रहे हैं। जबकि इस दौरान पार्टी नेतृत्व द्वारा उनके द्वारा अनेक अभियान चलाए जाते हैं। इससे भी भाजपा कार्यकर्ता नाराज थे और इसका असर कम मतदान प्रतिशत के रूप में भी सामने आया।

हिन्दुस्थान समाचार/ डॉ. कुलदीप/सियाराम