लोस चुनाव : राजनैतिक दलों की चुनावी वैतरणी को पार लगाएंगे 'नारे'

 


लखनऊ, 13 अप्रैल (हि.स.)। आंदोलन हो या चुनाव। सभी में नारों की भूमिका अहम मानी जाती है। भारत में बिना नारों के तो शायद ही कोई चुनाव होते हैं। शक्तिशाली नारे, चुनाव जिता भी सकते हैं और कमजोर और निष्प्रभावी होने पर चुनाव हरवा भी देते हैं। दरअसल, नारे कोरे नारे नहीं होते। ये जनमानस पर गहरा असर छोड़ते हैं। हर चुनावी मौसम में राजनीतिक दल नारे गढ़ते हैं। दशकों पुराने नारे भी सामयिक लग रहे हैं।

हाल फिलहाल नारों, कैंपेन के मामले में भाजपा सबसे आगे रही है। 2014 के आम चुनाव में भाजपा के 'अच्छे दिन आने वाले हैं' नारे ने लोगों को काफी प्रभावित किया। भाजपा का 'घर घर मोदी-हर हर मोदी' नारे ने भी लोकप्रियता के सारे रिकॉड तोड़ दिए थे। इस बार भाजपा ने 'अबकी बार- 400 पार' और 'मोदी की गारंटी' का नारा दिया है। साथ ही 'हम हैं मोदी का परिवार' कैंपेन से जनता को लुभाने का प्रयास किया गया है। कांग्रेस ने इस बार 'हाथ बदलेगा हालात' का नारा दिया है। समाजवादी पार्टी ने 'अस्सी हराओ-भाजपा हटाओ' का नारा दिया है। 'पीडीए ही एनडीए को हराएगा' नारा भी सोशल मीडिया पर चल रहा है।

साहित्यकार सुशील शुक्ल कहते हैं, राजनीतिक दलों के नारे अक्सर देश की जनता का मूड भांपने की किसी दल की क्षमता को स्पष्ट करते हैं। आजादी के बाद शुरुआती समय में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बैलों की जोड़ी था, तब तत्कालीन जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीपक-बाती था। उस वक़्त जनसंघ ने चुनावी नारा दिया- 'देखो दीपक का खेल, जली झोंपड़ी, भागे बैल'। जवाब में कांग्रेस का नारा भी कम दिलचस्प नहीं था। कांग्रेस कार्यकर्ता प्रचार में नारा लगाते थे-'इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं'।

इंदिरा गांधी के सक्रिय होने के दौरान कई नारे खूब चर्चित हुए। शुरुआत में ये नारा बहुत गूंजता था- 'जनसंघ को वोट दो, बीड़ी पीना छोड़ दो, बीड़ी में तम्बाकू है, कांग्रेस पार्टी डाकू है'। इसके अलावा 'इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया' नारा भी खूब चला था। इमरजेंसी के काल में कई नारे गूंजे थे।

कांग्रेस का सबसे चर्चित नारा रहा-'कांग्रेस लाओ, गरीबी हटाओ'। ये नारा हर चुनाव में लगता रहा और फिर विपक्ष ने इसकी काट में नारा दिया-'इंदिरा हटाओ, देश बचाओ'। वहीं 'जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मुहर लगेगी हाथ पर' काफी चर्चित नारा था।

जेपी ने 'संपूर्ण क्रांति' के नारे से इंदिरा को मात दे दी। जनता पार्टी के ढाई साल के शासन के बाद कांग्रेस ने नारा दिया, 'आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा जी को लाएंगे।'1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर ने विपक्ष को साफ कर दिया। नारा लगा-'जब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिरा जी का नाम रहेगा'।

साल 1989 के आम चुनाव में वी.पी.सिंह को लेकर नारा बहुत मशहूर हुआ था 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है। इसी तरह वामपंथी दलों का नारा भी खूब चर्चा में रहे हैं। अस्सी के दशक में एक नारे ने खूब सुर्खियां बटोरीं-'चलेगा मजदूर उड़ेगी धूल, न बचेगा हाथ, न रहेगा फूल'। इसके साथ ही वाम दलों का ये नारा भी खूब चला 'लाल किले पर लाल निशान, मांग रहा हिंदुस्तान'।

वहीं भाजपा के नारों की बात करें तो भाजपा का सबसे चर्चित नारा रहा था, 'अटल, आडवाणी कमल निशान, मांग रहा है हिंदोस्तान'। पिछले एक दशक में कई नारों ने सुर्खियां बटोरी हैं। जिनमें भाजपा का 'अच्छे दिन आने वाले हैं' से लेकर 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' और 'अबकी बार, मोदी सरकार' से लेकर 'बार-बार मोदी सरकार' नारे शामिल हैं। भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का चेहरा बनाया तो उसके बाद 'हर-हर मोदी, घर-घर मोदी' का नारा भी गूंजा, पीएम मोदी ने खुद को चौकीदार बताया तो कांग्रेस का 'चौकीदार चोर है' नारा खूब गूंजा। उस समय कांग्रेस की ओर दो नारे सुनाई पड़ते थे- हर हाथ शक्ति, हर हाथ तरक्की और कट्टर सोच नहीं...युवा जोश।

देश की राजनीति में भाजपा के नए सिरे से उभार में राम मंदिर आंदोलन प्रमुख रहा, तो भाजपा के नारे गूंजे- 'सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे' इसके अलावा 'एक ही नारा, एक ही नाम, जयश्री राम, जयश्री राम'। उस दौर में 'अटल-आडवाणी कमल निशान, मांग रहा है हिंदोस्तान', ये नारा भी चलने लगा। उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता को लेकर ये नारा और चला 'सबको देखा बारी-बारी, अबकी बारी अटल बिहारी'। साल 1996 में लखनऊ में रैली के दौरान पहली बार ये नारा सामने आया था। उन्हीं चुनावों में भाजपा चाहे 13 दिनों के लिए सही लेकिन पहली बार केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब हुई थी।

1996 और 1997 के विधानसभा और लोकसभा चुनाव में सपा ने नारा दिया था- जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है। तिलक-तराजू का नारा लगाने वाली बसपा ने बाद में 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है' और 'सर्व समाज के सम्मान में, बहन जी मैदान में' जैसे नारे भी गढ़े।

चुनावी नारे' पुस्तक के लेखक अमिताभ श्रीवास्तव कहते हैं, राजनीतिक दलों के नारों से उनकी विचारधारा और मुद्दों का पता चलता है। नारों का असर वैसे ही होता है जैसे सोशल मीडिया पर कोई संदेश या पोस्ट डालने पर होता है।

हिन्दुस्थान समाचार/ डॉ.आशीष वशिष्ठ/राजेश