प्रथम स्वाधीनता संग्राम का गढ़ भरेह किला हो रहा जमींदोज

 


- 1857 की क्रांति में चम्बल के रणबांकुरों को यहां मिली थी पनाह

- राजा रूप सिंह जूदेव के बगावत से परेशान अंग्रेजों ने दागे थे तोपों से गोले

औरैया, 09 अगस्त (हि.स.)। ब्रिटिश हुकूमत के जुल्म-ओ-सितम से तंग आकर जहां 1857 में बगावत की चिंगारी ने पूरे देश में स्वाधीनता संग्राम का रूप ले लिया था। इस लड़ाई में चम्बल घाटी के भरेह स्टेट के बगावती तेवरों ने इतिहास के पन्नो में हौसलों और जज्बे की मिसाल को दर्ज तो करवा दिया लेकिन बदलाव के दौर में आज उस हिम्मत और बुलन्द इरादों का गवाह भरेह किला शासन और प्रशासन के उपेक्षित रवैये के चलते जमींदोज होने की कगार पर पहुंच गया है।

उल्लेखनीय है कि मुगलों के आने से पूर्व कन्नौज के हिन्दू राजा जयचंद्र द्वारा अपनी पुत्री देवकला का विवाह राजस्थान के डहार नामक स्थान के सेंगर वंश के वीर विशोकदेव के साथ करने के बाद दहेज में बहुत बड़ी रियासत दी थी। इस रियासत के एक भाग भरेह स्टेट पर पीढ़ी दर पीढ़ी कई सेंगर राजाओं ने शासन किया। मगर राजा रूप सिंह का उल्लेख आता है तो उनकी हिम्मत और जज्बे को याद कर बांछे खिल उठती हैं, जिन्होंने स्वाभिमान और माटी की लाज बचाने को लेकर सत्ता मोह को त्याग ही नहीं बल्कि अंग्रेजों के आगे सीना तानकर बगावत कर दी और चम्बल इलाके में जांबाजों में देश भक्ति की भावना जगाकर क्रांति में कूद पड़े। जब अंग्रेजों ने बगावत के इस बड़े गढ़ भरेह किले पर अपना दवाब बढ़ाया तो राजा रूप सिंह अपनी छोटी सैन्य टुकड़ी लेकर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से जा मिले।इसके बाद वाे लगातार इस क्षेत्र विशेष में क्रांति की मशाल जलाते रहें।

इधर, ब्रिटिश हुकूमत ने कोई दवाब काम करता न देख चम्बल के आजादी के दीवानों के इस किले पर तोपों से गोले दाग कर क्षतिग्रस्त तो कर दिया, मगर उनके हौंसलों को डिगा नहीं पाए। लक्ष्मीबाई के बलिदान के बाद राजा रूप सिंह घर परिवार और एक मात्र दत्तक पुत्र निरंजन सिंह जूदेव को चम्बल के गांव वन्सरी में अपने परिचित के घर छोड़ कर बिठूर में नाना साहेब के गुट में मिलकर लड़ाई लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। कुछ समय बाद पुत्र निरंजन सिंह ने पिता के कारवां को आगे बढ़ाते हुए पुनः इस किले का जीर्णोद्धार कराकर अंग्रेजों के दाँत खट्टे किये। जहां (भरेह किले) से छापामार हमलों की रणनीतियां तय कर जंग-ए-आजादी के सिपाही उन्हें अमली जामा पहनाने का काम से करते रहे। मगर अफसोस इस स्वर्णिम इतिहास को संजोये और राष्ट्रप्रेम की भावना का प्रेरणास्त्रोत भरेह किला अंग्रेजों के आगे तो सीना तानकर खड़ा रहा, लेकिन बदलाव के दौर में आज अपनों के उपेक्षित रवैये ने जमींदोज होने की कगार पर ला खड़ा किया। हालांकि यहां के वंशजों में एक और जनता इंटर कॉलेज अजीतमल के प्रबंधक लाल उदयन सिंह सेंगर का कहना है कि सरकारों के उपेक्षित रवैये ने चम्बल के स्वर्णिम प्रेरणास्त्रोत धरोहर को गुमनामी के अंधेरों में धकेल दिया। वह स्वयं कई बार पूर्व मुख्यमंत्री समेत आलाधिकारियों से देश की इस अमूल्य विरासत को संभालने की गुहार लगा चुके हैं मगर कोई ध्यान न दिया जाना स्पष्ट रूप से अमर शहीदों के बलिदान का मजाक उड़ाने के सिवा कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

पर्यटन की अपार संभावनाएं

चम्बल यमुना के संगम तट पर समुद्र तल से लगभग 520 मीटर ऊंचाई पर खंडहर, ऐतिहासिक किले की पश्चिमी दीवार से नीलवर्ण, चम्बल की चपलता और उत्तरी दीवार से कालिंदी की धारा की अठखेलियाँ मनोहारी दृश्य बनाती हैं, तो चंद कदम दूरी पर सनातनी मान्यता का प्रतिनिधित्व कर रहा भारेश्वर महादेव का विशाल शिवालय में साल भर आने वाले श्रद्धालुओं का केंद्र यहां किले की दुर्दशा को देख विचलित हुए बिना नहीं रहती है। ऐसे में किले का जीर्णोद्धार पर्यटन के लिए बड़ी सम्भावना से कम नहीं है। बता दें कि यहां राष्ट्रीय चम्बल सेंचुरी का इलाका होने के चलते संरक्षित जलीय जीवों को देखने आने वालों का भी जमावड़ा लगा रहता है।

कहां है भरेह

प्रसाशनिक रूप से इटावा जनपद की दक्षिण पूर्वी और औरैया की दक्षिण पश्चिमी सीमा पर स्थित भरेह जाने के लिए नेशनल हाइवे 19 पर बाबरपुर से दक्षिण की ओर नवनिर्मित ग्वालियर रोड पर सिकरोनी पुल पार कर भरेह के इस किले की ऊँची मीनारें अपनी ओर बुलाती प्रतीत होती हैं। यहीं हैं जंग-ए-आजादी के सूरमाओं की शरणस्थली, जो अपनी कहानी काे खुद व खुद ही कहती नजर आ जाती है।

हिन्दुस्थान समाचार / सुनील कुमार / मोहित वर्मा