पनचक्की का अस्तित्व आज भी है मौजूद
गोपेश्वर, 10 नवम्बर (हि.स.)। घराट (पनचक्की) का नाम लेते ही पूराना जमाना याद आने लगता है। पनचक्की में पीसा गया गेहूं अथवा मंडुवे का आटा स्वादिष्ट के साथ पौष्टिक होता है। आज भी पहाड़ में घराटो का वजूद बना है।
उत्तराखंड में घराटों में आटा पीसने का सिलसिला सदियों से चलते आ रहा है। घराट हर गांव और तोको में होते हैं जो निशुल्क चलते थे। केवल भगवाड़ी अर्थात गेंहू, मंडुवा जो भी पीसा गया उसी को एक-दो अंजुल वहां रखे बर्तन में रख दिया जाता था, वही घराट के मालिक का मेहनताना होता था। ग्रामीण घराट का निर्माण स्वयं करते थे। घराट से मोटे अनाज जौ बाजरा, गेहूं, चना, सोयाबीन, भट्ट आदि को पीस कर खाते हैं। जब से इलेक्ट्रिक चक्कियां अस्तित्व में आईं तो घराट का प्रचलन धीरे-धीरे कम होने लगा। अब दूरस्थ गांव वाण, घेस, रामपुर तोरती, ऐराठा, कनोल, सुतोल, बगडबेरा, चिड़िया, झलिया कुंवारी, रैन, गरसो, खेता मानमती, सौरीगाड, चोटिंग सहित दूरस्थ गांव में लोग घराट का प्रयोग करते देखे जाते हैं। घराट गांव में रोजगार का जरिया भी है।
वर्ष 2012 में प्रदेश सरकार ने घराटों के आधुनिकीकरण करने का प्रयास किया। घराटों में ऐसे संयंत्र लगाए जो आटा पीसने के साथ बिजली भी पैदा करता है। तकनीकी कमी के चलते कुछ समय तो चले फिर खराब हो गए। लेकिन घराट आज भी अस्तित्व में हैं।
कैसे बनाया जाता है घराट
घराट, ऐसे स्थान पर लगाया जाता है, जहां पानी की तेज धारा निकलती है। इसमें 20 फीट का लकड़ी का नालीनुमा जिसे पनेला कहा जाता है, लगाया जाता है। एक गोल लकड़ी के पंखा नुमा चक्का बनाया जाता है, जिसके ऊपरी भाग पर दो चपटे गोल पत्थर लगाये जाते हैं। जो पानी से चलता है। जिसमें जो भी सामग्री पीसा जाता है वह काफी मुलायम होती है।
क्या कहते हैं जानकार
घराट के जानकार देवाल के रैन गांव निवासी ब्रजमोहन गडिया ने बताया कि सदियों से हर गांव में आठ-दस घराट होते थे, जो पिसाई का काम करते थे। घराट में पीसा गया आटा पौष्टिक और स्वादिष्ट होता है। अब चक्कियों के प्रचलन से घराटों की संख्या में गिरावट आई है। चक्की में पीसा आटा में उतना स्वादिष्ट नहीं होता है और साथ ही उसकी पौष्टिकता भी समाप्त हो जाती है। अभी भी कुछ गांव है, जहां घराट का लोग प्रयोग करते हैं।
हिन्दुस्थान समाचार/जगदीश/वीरेन्द्र