आजादी से पहले लोकतंत्र : बीकानेर के पूर्व महाराजा गंगासिंह ने 1913 में राज्य के लोगों को प्रतिनिधि सभा का दिया था उपहार

 


बीकानेर, 13 अगस्त (हि.स.)। राजस्थान विधानसभा मार्च 1952 में अस्तित्व में आई, लेकिन राजस्थान ने रियासती शासन में भी एक प्रकार के संसदीय लोकतंत्र का अनुभव किया था। बीकानेर के पूर्व महाराजा गंगा सिंह एक ऐसे प्रगतिशील राजा थे जिन्होंने 1913 में बीकानेर राज्य के लोगों को प्रतिनिधि सभा का उपहार दिया। वर्ष 1937 के दौरान विधान सभा की स्थापना में कुछ सुधार किए गए। सदन को बढ़ाकर 51 सदस्यीय कर दिया गया। इनमें से 26 सदस्यों को चुना जाना था और 25 को नामांकित किया जाना था। 26 में से 3 सदस्य ताजीमी सरदारों द्वारा, 10 सदस्य राज्य जिला बोर्डों द्वारा, 12 सदस्य नगर पालिकाओं द्वारा और एक सदस्य व्यापारियों और उद्योगपतियों द्वारा चुना जाना था।

चुनाव होने थे प्रजा मंडल ने बहिष्कार किया

1947 के बीकानेर अधिनियम संख्या 3 में विधानमंडल के संबंध में प्रावधान था, जिसमें राज सभा और धारा सभा शामिल थी। राज सभा और धारा सभा के चुनाव 28 सितंबर 1948 को होने वाले थे। लेकिन 8 अगस्त 1948 को बीकानेर प्रजा मंडल द्वारा चुनावों का बहिष्कार करने के निर्णय के कारण राज सभा और धारा सभा का गठन स्थगित कर दिया गया।

जोधपुर: 1940 में केंद्रीय और जिला सलाहकार बोर्डों की स्थापना

राज्य के लोगों में बढ़ती राजनीतिक जागरूकता और उनकी बढ़ती गतिविधियों के बावजूद जोधपुर के पूर्व महाराजा उम्मेद सिंह ने 1940 के दशक में ही प्रशासन में लोगों की भागीदारी के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था और केंद्रीय और जिला सलाहकार बोर्डों की स्थापना को अपनी मंजूरी दे दी थी।

जयपुर में प्रतिनिधि सभा, विधान परिषद

सार्वजनिक हित और महत्व के मामलों पर प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता की राय जानने के उद्देश्य से जयपुर के पूर्व महाराजा मानसिंह ने 1939 में एक केंद्रीय सलाहकार बोर्ड का गठन किया। इसमें 13 नामांकित सदस्य और 35 गैर-आधिकारिक सदस्य शामिल थे। इसे चिकित्सा सुविधाओं, स्वच्छता, सार्वजनिक कार्यों, सड़कों, कुओं और इमारतों सार्वजनिक शिक्षा, ग्रामीण उत्थान, विपणन, वाणिज्य और व्यापार आदि से संबंधित मामलों पर सलाह देने की शक्ति दी गई थी। इसका उद्घाटन 18 मार्च 1940 को हुआ था।

जयपुर सरकार अधिनियम 1944 के अनुसार प्रतिनिधि सभा और विधान परिषद की स्थापना 1 जून 1944 को की जानी थी। प्रतिनिधि सभा में कुल 120 निर्वाचित सदस्य और पांच नामांकित गैर-आधिकारिक सदस्य शामिल होने थे। 145 सदस्यों में से और विधान सभा के 51 सदस्यों में से 37 सदस्यों का चुनाव और 14 का मनोनयन होना था। उन्हें 3 वर्ष तक पद पर रहना था। प्रधान मंत्री को दोनों सदनों के पदेन अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया जाना था और कार्यकारी परिषद के वरिष्ठतम मंत्रियों को क्रमशः प्रतिनिधि सभा और विधान परिषद के उपाध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया जाना था। इनका चुनाव संयुक्त मतदाता सूची के आधार पर होना था, मुसलमानों के लिए भी सीटें आरक्षित की गईं। यह अनिवार्य था कि चुनाव में भाग लेने वाले उम्मीदवार को स्वयं मतदाता होना चाहिए और उसके पास आयु, शिक्षा और नागरिकता के संबंध में अपेक्षित योग्यता होनी चाहिए। विधायकों को बोलने की आज़ादी थी और सदन की बैठकों के दौरान उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सकता था।

विधान परिषद के पास प्रश्न पूछने, संकल्प अपनाने, अधिक स्थगन प्रस्ताव प्रस्तुत करने और कानून बनाने की शक्तियां थीं। इसे बजट पर चर्चा करने और उस पर मतदान करने की शक्तियां भी दी गईं। लेकिन महाराजा और राज्य की सेना के संबंध में कानून बनाना उसकी शक्ति से परे था।

हिन्दुस्थान समाचार/राजीव/संदीप