मप्रः शोर शराबे और हुड़दंग में तब्दील होता नजर आता है झाबुआ-अलीराजपुर का भगोरिया उत्सव

 


झाबुआ, 21 मार्च (हि.स.)। फाल्गुन मास में जब टेसू की रंगत बिखेरने लगती है, मीठे स्वर में कोयल का गान सुनाई देने लगता है, झाबुआ-अलीराजपुर की शैली श्रृंखलाओं में बंसी की मधुर स्वर लहरी तथा ढोल, मांदल और थाली का संगीत गुंजायमान होने लगता है। तब यही कहा जाने लगता है कि भगोरिया अथवा गुलालिया उत्सव का शानदार आगाज होने वाला है।

भगोरिया उत्सव की शुरुआत राजा भोज के शासनकाल में हुई, ऐसा कहा जाता है। उस समय के भील राजाओं कासूमरा और बालून ने अपनी राजधानी भगोर में ऐसे मेले की शुरुआत की थी, जो कालांतर में भगोरिया मेले के रूप में प्रसिद्ध हुआ। बाद में भगोर के बाद अन्य स्थानों पर भी इस तरह से मेला भरने लगा और चूंकि यह आयोजन साप्ताहिक हाट बाजारों के दिन रखा जाता था, इसलिए इन्हें भगोरिया हाट की उपमा दे दी गई। समय के साथ ऐसे ही उत्सवी हाट जो कि झाबुआ जिले से शुरू हुए थे, बाद में पश्चिमी निमाड़, धार, बड़वानी में भी भरने लगे। भगोरिया के दौरान ग्रामीण जन बांसुरी बजाते ढोल-मांदल और थाली बजाते हुए अपनी मस्ती में मस्त होकर सामुहिक नृत्य करते हैं।

होली उत्सव से पहले के सात दिन भरने वाले हाट भगोरिया हाट बाजार कहे जाते हैं। जनजातीय प्रधान क्षेत्रों में परंपरागत रूप से भगोरिया हाट भरते आ रहे हैं, जिनमें युवा वर्ग बड़े उत्साह से भाग लेता आया है, किंतु पिछले करीब दो दशक में इसका स्वरूप बदलता हुआ दिखाई दिया है। हालांकि यह भगोरिया उत्सव अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध है और इसे देखने के लिए देश सहित विदेशियों की भी बड़ी दिलचस्पी रही है, किंतु कालांतर में भगोरिया हाट बेदम होते हुए अपनी अस्मिता खोते जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि ग्रामीणों में अब इन भगोरिया हाट या मेले के प्रति लगाव कम होता जा रहा है और बेदम होते ये हाट बाजार धीरे धीरे अपनी खासियत खोते हुए सामान्य हाट बाजारों में बदलते जा रहे हैं।

करीब दो दशक पूर्व तक इन भगोरिया हाट में जनजातीय लोक संस्कृति के आंशिक रूप से दर्शन होते थे, मौज मस्ती के इन मेलों की, या उत्सव की यही खासियत भी हुआ करती थी, किंतु आज के इस दौर में उस भगोरिया संस्कृति के दर्शन अलीराजपुर जिले के वालपुर ओर कट्ठीवाड़ा सहित जिले के अंधारवड़ आदि कुछ स्थानों पर यदि होते भी हैं, तो पूरे तौर पर बदलते हुए स्वरूप में ही होते हैं।

झाबुआ सहित अलीराजपुर जिले में परंपरागत रूप से होली उत्सव के पहले लगने वाले हाट बाजार आदिवासी समुदायों की महत्वपूर्ण सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं, किंतु आज के वक्त में इन भगोरिया हाट बाजारों की पहचान हंसी ठिठौली, मौज मस्ती के रूप में ही शेष रह गई है। अब ये हाट या मेले बेदम होते दिखाई दे रहे हैं। भगोरिया हाट इस वर्ष भी लग रहे हैं, किंतु कहीं भी न तो कोई रौनक नजर आती है, नहीं ग्रामीणजनों में कोई खास उत्साह का वातावरण ही दिखाई दे रहा है। आज इन हाट बाजारों में केवल हुड़दंग मचाती हुई युवाओं की टोलियां ही दिखाई देती है।

अपने मित्रों के साथ थांदला का भगोरिया घूमने आए ग्राम मछलईमाता के निवासी युवक वीरेंद्र पुत्र मानसिंह ने कहा कि भगोरिया देखने आए थे, पर अब इन हाट में कोई दम नहीं बचा है, थोड़ा और घूम कर वापस घर चले जाएंगे। वैसे भगोरिया हाट को विवाह योग्य युवक युवतियों के द्वारा परस्पर प्रेम प्रदर्शित करने और उसकी स्वीकारोक्ति के एक प्लेटफार्म के रूप में भी उल्लेखित किया जाता रहा है, किंतु कुछ जनजातीय समाज के संगठन भगोरिया हाट को प्रणय पर्व कहे जाने या फिर इन्हें जनजातीय संस्कृति के पर्व के रूप में वर्णित किए जाने का सार्वजनिक तौर पर विरोध करने लगे हैं।

यद्यपि आज के प्रगतिशील वक्त के दौर में भी भगोरिया अथवा गुलालिया हाट प्रणय निवेदन या स्वीकृति के प्लेटफार्म के रूप में नहीं देखे जा सकते हैं और नहीं विवाह के पूर्व एक मंच के रूप में ही इनका सहारा लिया जाता है। अब ये हाट या मेले विवाह योग्य युवक युवतियों के लिए एक अवसर के रूप में बिल्कुल भी देखें जाने योग्य नहीं कहे जा सकते हैं, किंतु यह भी एक तथ्य है कि वक्त के किसी दौर में इन हाट बाजारों के दौरान जनजातीय समुदाय के युवक युवतियों में प्रणय निवेदन, स्वीकृति और फिर परस्पर सहमति से भाग कर विवाह का मार्ग प्रशस्त किया जाता था।

मेघनगर जनपद के ग्राम राखड़िया के तड़वी और झालाडाबर पंचायत के पूर्व सरपंच पुनिया पुत्र नाथू भूरिया ने हिंदुस्थान समाचार से हुई बातचीत में कहा कि पुराने समय में भगोरिया हाट के दौरान युवक युवतियों के बीच जीवन साथी के रूप में साथ रहने की सहमति बन जाया करती थी, किंतु कई बार इन हाट बाजारों में युवक जबरन लड़की भगाकर या खींचकर भी ले जाते थे, हालांकि बाद में दहेज दापा देकर दोनों परिवारों द्वारा पंचों की मौजूदगी में झगड़ा सुलझा लिया जाता था, किंतु कभी कभी कुछ विशेष कारणों के चलते विवाद गहरा भी हो जाया करता था। पुनिया भूरिया कहते हैं कि आज के इस समय में अब इस तरह की भागने या भगाए जाने के बारे में सुनने में नहीं आता है। अब युवक युवती यदि परस्पर सहमति से विवाह कर लेते हैं, तो लड़की के पिता को एक से डेढ़ लाख रुपए ओर डेढ़ किलो चांदी के गहने देने के बाद परिवारों में सहमति बन जाया करती है।

पुराने समय में जब आवागमन के साधनों का नितांत अभाव था, तब दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए भगोरिया हाट अपने स्वजन संबंधियो से मिलने का एक प्लेटफार्म हुआ करता था। ऐसा कहा जाता है कि विवाह योग्य युवक युवती भी इन हाट बाजारों में मिलते हुए अपने जीवन साथी की तलाश कर लिया करते थे, जो बाद में पारिवारिक सहमति के बाद विवाह के रूप में परिणीती हो जाया करती थी। इन्हीं हाट में कदाचित जबरजस्ती लड़की भगाएं जाने की घटनाएं भी आकार ले लेती थी, किंतु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि भगोरिया हाट में लड़कियों को भगाकर ले जाया जाता था, इसलिए इसे भगोरिया हाट कहा जाने लगा। वस्तुत: इसकी शुरुआत भगोर नामक गांव से होने के ही कारण इसे भगोरिया की उपमा दी गई, और यह मेले ढोल-मांदल एवं बांसुरी बजाते हुए मस्ती में झूमने, गाने, माजम (शकर की मिठाई) एवं कुल्फी खाने और झूला झूलने का आनंद लेने का ही उत्सव है।

भगोरिया को पिछले साल मध्यप्रदेश सरकार ने राजकीय पर्व घोषित किया था, किंतु किसी भी लोक पर्व को शासकीय संरक्षण या समर्थन की जरूरत शायद कभी रही ही नहीं। वैसे भी परंपरागत मेले और पर्व सदैव से ही हमारे गौरवशाली सांस्कृतिक परंपराओं के अंग रहे हैं। भगोरिया मेले भी जनजातीय परंपरा का महत्व पूर्ण हिस्सा रहे हैं किंतु समय के साथ साथ इसका स्वरूप पूरी तरह बदल चुका है, और अब यह मेला अब गाने बजाने, सामुहिक नृत्य के बजाए अब शोर शराबे तथा हुड़दंग में तब्दील होता हुआ नज़र आने लगा है, फिर भी भगोरिया का नाम तो शेष बचा ही हुआ है।

हिन्दुस्थान समाचार/ डॉ. उमेशचन्द्र शर्मा/मुकेश