जगदलपुर : अमर बलिदानी महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की शहादत की 58वीं पुण्यतिथि 25 मार्च को
जगदलपुर, 24 मार्च (हि.स.)। बस्तर के रियासत कालीन दौर के इतिहास में एक ऐसा महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव जिसे बस्तर की आदिवासी से लेकर जनसामान्य अपना नायक मानती थी। बस्तर के अंतिम एक मात्र महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव आज भी बस्तर के लोकनायक के रूप में पूजनीय है। अमर बलिदानी महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की शहादत की 58वीं पुण्यतिथि पर 25 मार्च को बलिदान दिवस के अवसर पर दिवंगत महाराजा को श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए पुष्पांजलि सभा का आयोजन प्रतिमा स्थल, माई दंतेश्वरी मंदिर के सामने प्रात: 10 से 11 बजे तक किया गया है।
यह एक संयोग है कि इस वर्ष 25 मार्च को ही होली भी पड़ रही है। इस कारण यह पुष्पांजलि कार्यक्रम संक्षिप्त अवधि के लिए अर्थात प्रात: 10 से 11 बजे तक ही आयोजित है। अत: समय का विशेष ध्यान रखते हुए पुष्पांजलि हेतु माई दंतेश्वरी के सामने स्थित प्रतिमा स्थल पर अपनी उपस्थिति से कार्यक्रम को सार्थकता प्रदान करने में अपना योगदान देने का आह्वान किया गया है।
यह सर्वविदित है कि बस्तर के इतिहास के युगपुरुष अमर शहीद स्व. महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव ने विभिन्न समाजों तथा आदिवासी समुदाय के व्यापक हितों एवं बस्तर के जल-जंगल-जमीन की अक्षुणता को बनाए रखने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। बस्तर के अमूल्य वन एवं खनिज तथा बैलाडिला के लोहे की खदानों को निजाम के चंगुल से बचाते हुए एवं विरोधी ताकतों से लोहा लेते हुए महाराजा ने इन अमूल्य संपदाओं को बस्तर के नक्शे में समाहित कराया। जो छतीसगढ़ के लिए युगों-युगों तक जीवनदायिनी का काम करता रहेगा। यह महानतम कार्य ही उनके बलिदान का मुख्य कारण रहा। स्वर्गीय महाराजा के साथ असंख्य बस्तर-वासियों ने बस्तर के हितों की लड़ाई में अपनी शहादत दी, यह अपने आप में विश्व की ऐतिहासिक घटना मानी जाती है। इस दिन को स्वर्गीय महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव सहित उन असंख्य शहीदों की पुण्यस्मृति में आयोजित किया जाता रहा है।
उल्लेखनीय है कि 58 वर्ष पहले 25 मार्च 1966 को जगदलपुर के अपने राजदरबार में महाराजा बस्तर प्रवीर चंद्र भंजदेव अपने समर्थकों के बीच मौजूद थे। इसी दौरान राजमहल के भीतर सशस्त्र पुलिस ने प्रवेश किया और बिना चेतावनी के अंधाधुंध गोलीबारी की। इस गोलीकांड में महाराजा प्रवीर चंद्र समेत कई आदिवासियों की मौत हो गयी थी। लेकिन आधिकारिक तौर पर महाराजा समेत 12 लोगों की मौत और 20 लोगों को घायल बताया गया। जानकार बताते हैं पुलिस ने 61 राउंड फायर किये थे। राजमहल में घुसकर निहत्थे राजा और आदिवासियों पर गोलीबारी की थी।
राजनेताओं की माने तो आजाद भारत के रियासतों के विलीनीकरण के बाद से महाराजा बस्तर के रहते कांग्रेस कभी भी बस्तर के आदिवासियों को अपने भरोसे में नहीं ले पा रही थी। कांग्रेस अपनी विजययात्रा में महाराजा बस्तर को बड़ी बाधा मानती थी। इस बाधा को उखाड़ फेंकने की शुरुआत कांग्रेस ने काफी पहले 1961 से शुरु कर दी थी। इसी का नतीजा लोहांडीगुड़ा गोलीकांड भी था। इस गोलीकांड में 12 आदिवासी शहीद हुए थे और 59 निर्दोष आदिवासियों पर मुकदमा दर्ज किया गया था। इसके पहले बस्तर में अकाल जैसे हालात बन गए थे और तत्कालीन कांग्रेस सरकार थी। महाराजा बस्तर के आदिवासियों पर से उनके प्रभाव को कम करने बस्तर रियासत के साथ कोई रियायत नहीं बरतते हुए लगान वसूली में और कड़ाई कर दी। इससे बस्तर रियासत की जनता का कांग्रेस से दूरी और राजा से निकटता प्रगाढ़ होती चली गई। नतीजतन बौखलाई कांग्रेस ने महाराजा बस्तर और अपने बीच गैर देश के शत्रु की तरह व्यवहार करना शुरु कर दिया।
वर्ष 1966 के पहले भी राजनैतिक हालातों पर बस्तर रियासत से विचार-विमर्श के लिए महाराजा प्रवीर चंद्र भेजदेव ने बैठक बुलाई। तात्कालीन कांग्रेसियों ने इस बैठक को राज्य के खिलाफ बलवे की तैयारी बताकर गोलियां चलवा दीं और पूरा राजमहल परिसर रक्त रंजित हो गया था। संयोगवश बस्तर उन दिनों अविभाजित मप्र का हिस्सा था, और मुख्यमंत्री कांग्रेस के उन दिनों के चाणक्य कहे जाने वाले द्वारिका प्रसाद मिश्र थे। जिनकी महाराजा बस्तर से कभी नहीं पटी और यही वजह रही की कांग्रेस को बस्तर में अपने पैर जमाने में 1970 के बाद कामयाबी मिली थी।
हिन्दुस्थान समाचार/ राकेश पांडे