यूपी का पृथ्वीनाथ मंदिर, जहां है एशिया का सबसे बड़ा शिवलिंग; जानिए इसकी खासियत
गोंडा जिले के खरगूपुर के पृथ्वीनाथ मंदिर में भगवान शिव को समर्पित है. इस मंदिर में स्थापित शिवलिंग को एशिया का सबसे ऊंचा शिवलिंग माना जाता है, जो 5.4 फीट ऊंचा है. यह मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसका इतिहास और पौराणिक मान्यता भी बहुत खास है. पृथ्वीनाथ मंदिर श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र है. यहां मांगी गई हर मन्नत पूरी होती है.
गोंडा जिले के खरगूपुर के पृथ्वीनाथ मंदिर में भगवान शिव को समर्पित है. इस मंदिर में स्थापित शिवलिंग को एशिया का सबसे ऊंचा शिवलिंग माना जाता है, जो 5.4 फीट ऊंचा है. यह मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसका इतिहास और पौराणिक मान्यता भी बहुत खास है. पृथ्वीनाथ मंदिर श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र है. यहां मांगी गई हर मन्नत पूरी होती है.
सबसे ऊंचा शिवलिंग
पृथ्वीनाथ मंदिर में स्थापित शिवलिंग को एशिया और कुछ मान्यताओं के अनुसार विश्व का सबसे ऊंचा शिवलिंग माना जाता है. इसका 64 फीट हिस्सा जमीन के नीचे है, जिसे सात खंडों में विभाजित माना जाता है. इस शिवलिंग की विशालता और पौराणिक महत्व के कारण यह मंदिर श्रद्धालुओं के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र है. ऐसी मान्यता है कि यहां पर सच्चे मन से भगवान शिव की आराधना करने वाले भक्तों को मनवांछित फल प्राप्त होता है.
पांडवों ने किया था विश्राम
धार्मिक मान्यता के अनुसार, पृथ्वीनाथ मंदिर के शिवलिंग की स्थापना महाबली भीम ने की थी. कहते हैं कि द्वापर युग में अज्ञातवास के दौरान, पांडवों ने यहां विश्राम किया था और महाबली भीम ने इस शिवलिंग को स्थापित किया था. हर साल शिवरात्रि के मौके पर यहां एक भव्य मेला लगता है.
महाभारत काल के समय हुआ निर्माण
इस मंदिर का शिवलिंग 5000 वर्ष पहले महाभारत काल का बताया जाता है, जो कि काले कसौटी के पत्थरों से बना हुआ है. पृथ्वीनाथ मंदिर में देश के साथ ही विदेशों से भी श्रद्धालु पूजा-अर्चना करते आते हैं. धार्मिक मान्यता के अनुसार, यहां दर्शन, पूजन और जलाभिषेक करने से सभी दुख-दर्द दूर हो जाते हैं. कहते हैं कि इस शिवलिंग की ऊंचाई इतनी है कि भक्तों को जल चढ़ाने के लिए एड़ी उठानी पड़ती है. महाशिवरात्रि और सावन के पवित्र महीने में यहां लाखों की संख्या में भीड़ उमड़ती है.
महाभारत काल और पांडवों का अज्ञातवास
पृथ्वीनाथ मंदिर की कहानी महाभारत के उस दौर से शुरू होती है, जब पांडव अपने अज्ञातवास के दौरान एक वर्ष तक गुप्त रूप से जीवन यापन कर रहे थे. महाभारत के ‘वनपर्व’ के अनुसार, कौरवों के साथ जुए में हारने के बाद पांडवों को 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास भुगतना पड़ा. अज्ञातवास के दौरान उनकी पहचान उजागर होने पर उन्हें फिर से 14 वर्ष का वनवास भोगना पड़ता. इस दौरान पांडव अपनी माता कुंती के साथ कौशल राज्य के पंचारण्य क्षेत्र में पहुंचे, जिसे आज गोंडा और आसपास के क्षेत्र के रूप में जाना जाता है. इसी क्षेत्र में, जिसे उस समय चक्रनगरी या एकचक्रा नगरी कहा जाता था, एक भयानक राक्षस बकासुर का आतंक था. बकासुर प्रतिदिन नगरवासियों से एक बैलगाड़ी पकवान और एक व्यक्ति की मांग करता था, जिसे वह भक्षण कर लेता था.
एक दिन एक विधवा ब्राह्मणी के इकलौते पुत्र की बारी आई. पांडव उस समय उसी ब्राह्मणी के घर ठहरे हुए थे. माता कुंती ने उसकी पीड़ा देखकर अपने पुत्र भीम को बकासुर का वध करने के लिए भेजा. भीम ने अपनी गदा से बकासुर का वध कर क्षेत्रवासियों को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई. लेकिन बकासुर एक ब्राह्मण राक्षस था, जिसके वध के कारण भीम पर ब्रह्महत्या का पाप लगा. इस पाप से मुक्ति पाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन में भीम ने भगवान शिव की तपस्या की और खरगूपुर क्षेत्र में एक विशाल शिवलिंग की स्थापना की. यह शिवलिंग काले कसौटी पत्थरों से निर्मित है, जो लगभग साढ़े पांच फीट ऊंचा है और कहा जाता है कि इसका 64 फीट हिस्सा जमीन के नीचे है. पुरातत्व विभाग की जांच के अनुसार, यह शिवलिंग करीब 5000 से 6500 वर्ष पुराना है, जो इसे महाभारत काल से जोड़ता है.
शिवलिंग का पुनरुद्धार और मंदिर का नामकरण
समय के साथ यह शिवलिंग धीरे-धीरे जमीन में समा गया. कालांतर में, 19वीं सदी में, गोंडा नरेश की सेना के एक सेवानिवृत्त सैनिक पृथ्वी सिंह ने खरगूपुर में अपना मकान बनाने के लिए एक टीले पर खुदाई शुरू की. खुदाई के दौरान एक स्थान से खून का फव्वारा निकलने लगा, जिससे मजदूर घबरा गए और काम रोक दिया गया. उसी रात पृथ्वी सिंह को स्वप्न में भगवान शिव ने दर्शन दिए और बताया कि जमीन के नीचे एक सात खंडों का शिवलिंग दबा हुआ है.
स्वप्न के अनुसार, पृथ्वी सिंह ने अगले दिन खुदाई करवाई, और वहां से विशाल शिवलिंग प्रकट हुआ. इसके बाद उन्होंने विधि-विधान से शिवलिंग की पूजा-अर्चना शुरू की और मंदिर का निर्माण करवाया. तभी से इस मंदिर को “पृथ्वीनाथ मंदिर” के नाम से जाना जाने लगा. कहा जाता है कि मुगल काल में एक सेनापति ने भी इस मंदिर में पूजा-अर्चना की थी और इसका जीर्णोद्धार करवाया था. इसके बाद यह मंदिर और भी प्रसिद्ध हो गया.