मसोई में श्रीमद्भागवत कथा : महापुरूषों की सेवा ही मुक्ति का द्वार, कथा वाचक ने सुनाया भरत प्रसंग

महापुरूषों की सेवा ही मुक्ति का द्वार और आसक्ति ही बंधन का कारण है। इसलिए इंसान को हमेशा सेवा भाव का पालन करना चाहिए। इससे मनुष्य सभी प्रकार के भव बंधनों से मुक्त हो जाता है। उक्त बातें क्षेत्र के मसोई गांव में आयोजित श्रीमद्भागवत कथा के तीसरे दिन गुरुवार की रात कथा वाचक शिवम शुक्ला ने कही।
 

चंदौली। महापुरूषों की सेवा ही मुक्ति का द्वार और आसक्ति ही बंधन का कारण है। इसलिए इंसान को हमेशा सेवा भाव का पालन करना चाहिए। इससे मनुष्य सभी प्रकार के भव बंधनों से मुक्त हो जाता है। उक्त बातें क्षेत्र के मसोई गांव में आयोजित श्रीमद्भागवत कथा के तीसरे दिन गुरुवार की रात कथा वाचक शिवम शुक्ला ने कही। 

उन्होंने श्रोताओं को भरत प्रसंग सुनाया। कहा कि भरत जी हरिहर क्षेत्र में नदी में मंत्र जाप कर रहे थे। इसी बीच गर्भवती हिरणी को नदी में बहते हुए देखा। उन्होंने हिरण के बच्चे को तो बचा लिया, लेकिन हिरण के बच्चे की आशक्ति में उनका जप खंडित हो गया। अंतिम समय में केवल हिरण का बच्चा चिंतन में रहा। इससे भरत जी को अगला जन्म हिरण का मिला। एक दिन जंगल में आग लग गई। भरत जी ने उसी वन में परमात्मा चिंतन करते हुए अपनी देह का त्याग कर दिया। भरत जी को तीसरा जन्म ब्राह्मण के रूप में मिला। उसी भरत के नाम से हमारे राष्ट्र का नाम भारतवर्ष पड़ा। कहा कि भरत जी ने पालकी ढोते हुए राजा रहूगण को आत्मज्ञान का उपदेश दिया। आत्मा का ज्ञान केवल तपस्या से अथवा धर्मग्रंथों के अध्यनन से नहीं हो सकता। जब तक महापुरूषों का सत्संग व सानिध्य नहीं मिलेगा, तब तक आत्मबोध नहीं हो सकता। कथा वाचक ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने आप से तीन सवाल पूछने चाहिए, पहला मैं कौन हूं, संसार के साथ मेरा क्या संबंध है और मेरा स्वरूप क्या है। बार-बार इन प्रश्नों का चिंतन करने से मन श्रीकृष्ण के प्रति आसक्त होने लगता है और उसे आत्मज्ञान का साक्षात्कार हो जाता है। प्रह्लाद को आत्मज्ञान के कारण ही सर्वत्र श्रीकृष्ण का दर्शन होता था। भक्त के विश्वास को दृढ़ता प्रदान करने के लिए भगवान खंभे से नृसिंह का रूप लेकर प्रकट हो जाते हैं। प्रह्लाद ने अपने पिता हिरण्यकशिपु को नवदा भक्ति का उपदेश दिया था। कथा के अंत में भगवान नृसिंह की झांकी का भी आयोजन किया गया। यह देख श्रोतागण रोमांचित हो उठे।