कैसे खेले जइबू सावन में कजरिया... बनारस और मिर्जापुर से शुरू हुई थी सावन में कजरी गाने की परम्परा, कृष्ण की लीलाओं का भी होता है गायन
सावन के महीने में जब बेटियाँ अपने मायके आती हैं अपनी सखियों के साथ झूला झूलती हैं तब इसे गाती हैं। सावन के गीत काफ़ी पुराने समय से प्रचलित हैं, अमीर ख़ुसरो की मशहूर रचना है- 'अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया' इस रचना में एक बेटी अपने अम्मा से सावन के महीने में मायके बुलाने की बात कर रही है। वहीं भारत के आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर की भी एक रचना है- 'झूला किन डारो रे अमरैया' ऐसा नहीं है कि लोकगीत की ये विधा एक क्षेत्र तक सिमट कर रह गई हो, बहुत सारे प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक भी कजरी गाते हैं।
लोक्गयिकाओं और संगीत विशेषज्ञों की मानें तो, कजरी को गाने में एक अलग ही माहौल बन जाता है, जब चारों तरफ हरियाली दिखाई देती है। कजरी में श्रृंगार और वियोग दोनों तरह के रस पाए जाते हैं। इस कजरी में ननद भाभी की नोकझोंक के साथ कृष्ण की लीला भी इसमें गायी जाती है। ननद-भाभी पर एक ऐसी ही कजरी है- 'कैसे खेले जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घेरे आए ननदी' इसमें एक भाभी अपनी ननद से कह रही है कि इतने बादल घिरे हैं, कैसे सावन में कजरी खेलने जाओगी।"
भारत के हर एक प्रांत में गाया जाता है वर्षा गीत भारत के हर राज्य के लोकगीतों में वर्षा ऋतु को अहम् माना गया है। उत्तर प्रदेश के प्रचलित लोकगीतों में मिर्जापुर और वाराणसी की 'कजरी' के साथ ही ब्रज का मलार, पटका, अवध की सावनी, बुन्देलखण्ड का राछरा गायी जाती है। लोक संगीत के इन सब विधाओं में वर्षा ऋतु का मोहक चित्रण मिलता है। इन सब लोक शैलियों में 'कजरी' ने देश के व्यापक क्षेत्र को प्रभावित किया है।