काशी का दक्षिण द्वार है ‘शूलटंकेश्वर महादेव मंदिर’, शिवपुराण में मिलता है जिक्र, यहां महादेव ने गंगा के वेग को रोका
- पुलिस ने संभाला सुरक्षा का मोर्चा, चप्पे-चप्पे पर मुस्तैद
- माधव ऋषि ने गंगा अवतरण के पूर्व की थी शिवलिंग की स्थापना
- विपत्तियों से काशी की रक्षा करते हैं शूलटंकेश्वर महादेव
वाराणसी। भोलेनाथ के प्रिय महीने सावन का शिव भक्तों को काफी इंतजार रहता है। आज से सावन महीने की शुरुआत हो चुकी है। सोमवार को मंगला आरती के बाद से ही भक्तों के लिए शिवालयों का दरबार खोल दिया गया। भक्त अपनी बारी का इंतजार कर बाबा के दर्शन कर रहे हैं।
रोहनिया विधानसभा क्षेत्र के माधवपुर स्थित शुलटकेश्वर महादेव मंदिर में भक्तों की लंबी कतार लगी हुई है। भक्त शुलटंकेश्वर महादेव का जलाभिषेक कर रहे हैं। पुलिस प्रशासन के लोग मंदिर सुरक्षा व्यवस्था में चप्पे चप्पे पर मुस्तैद हैं।
शूलटंकेश्वर महादेव मंदिर रोहनिया विधानसभा क्षेत्र के माधोपुर में गंगा तट पर स्थित है। कैंट स्टेशन से 15 किलोमीटर और अखरी बाईपास से चार किलोमीटर की दूरी पर ये मंदिर है। यहां आने के लिए चुनार रोड पर खनांव के पास एक बड़ा द्वार बनाया गया है। दर्शन-पूजन के लिए यहां आम दिनों में तो श्रद्धालु आते ही हैं, शिवरात्रि और सावन में काफी भीड़ होती है।
पौराणिक महत्व के इस मंदिर का शिव पुराण में भी उल्लेख है। शूलटंकेश्वर महादेव मंदिर (रोहनिया वाराणसी) के पास से गंगा उत्तरवाहिनी होकर काशी में प्रवेश करती हैं। मंदिर के पुजारी बताते हैं कि माधव ऋषि ने गंगा अवतरण के पूर्व शिव की आराधना के लिए शिवलिंग की स्थापना की थी। भगवान शिव ने इसी स्थान पर अपने त्रिशूल से गंगा के वेग को रोक कर उनसे वचन लिया था कि वह काशी को स्पर्श करते हुए प्रवाहित होंगी। साथ ही काशी में गंगा स्नान करने वाले किसी भक्त को जलीय जीव से हानि नहीं होगी। गंगा ने जब दोनों वचन स्वीकार कर लिए, तब शिव ने अपना त्रिशूल हटाया।
इस जगह को काशी खंड में 'आनंद वन' के नाम से जाना जाता था। इसे काशी का दक्षिण द्वार भी कहा जाता है। मान्यता है कि गंगा अवतरण के समय भगवान शिव को काशी की सुरक्षा की चिंता सताने लगी। उन्होंने यहीं अपना त्रिशूल गाड़कर गंगा के वेग को रोका था। इसलिए इनका नाम शूलटंकेश्वर पड़ा। द्वापर में ब्रह्मा ने यहां वीरेश्वर महादेव के शिवलिंग की स्थापना की। दक्षिण दिशा में विराजमान शूलटंकेश्वर विपत्तियों से इस नगरी की रक्षा करते हैं। कालांतर में किसी राजघराने की ओर से इसे छोटे मंदिर का रूप दिया गया, जिसे स्थानीय लोगों ने 1980 के दशक में विस्तार दिया।