सुरों से सजी संकटमोचन संगीत समारोह की दूसरी संध्या, मां गंगा की पीड़ा का मार्मिक संगीतात्मक चित्रण सुन भावविभोर हुए श्रोता
इस संध्या की सबसे प्रभावशाली प्रस्तुति थी पंडित अजय चक्रवर्ती का गायन, जिसमें उन्होंने रागों की आत्मा को न केवल उकेरा, बल्कि श्रोताओं के मन में उसकी गूंज भी बसा दी। 'विद्यार्थी भाव' से गंधार का प्रयोग करते हुए उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि संगीत में जिज्ञासा और समर्पण की भावना ही सर्वोपरि होती है। पं. चक्रवर्ती की गायकी में गहराई, भाव और अनुशासन की वह त्रिवेणी थी, जिसने हर आयु वर्ग के श्रोताओं को बांधे रखा।
इस संध्या की एक अन्य यादगार प्रस्तुति रही काशी के ही पं. विकास महाराज का सरोद वादन। उन्होंने अपनी विशेष संगीत रचना 'गंगा' के माध्यम से मां गंगा की वर्तमान पीड़ा और उनके प्राचीन स्वरूप की स्मृति को स्वरबद्ध किया। सरोद के तारों से निकली ध्वनियों ने प्रदूषण से कराहती गंगा की वेदना को श्रोताओं तक पहुंचाया। उनकी इस रचना का अंतिम चरण एक प्रार्थना बन गया—गंगा फिर से अपने दिव्य, निर्मल रूप में लौट आएं। पं. विकास महाराज ने राग चारुकेशी से शुरुआत करते हुए जो अलाप छेड़ा, वह धीरे-धीरे जोड़ और झाला से होता हुआ राग भैरवी में प्रवाहित हो गया। उनकी उंगलियों से सरोद पर उतरे ये राग जैसे गंगा की धाराओं की तरह श्रोताओं के हृदय में बह निकले। उनके साथ सितार पर अभिषेक महाराज और तबला पर प्रभाष महाराज की संगति ने इस वादन को और भी जीवंत बना दिया।
इससे पूर्व, हैदराबाद से आए पद्मभूषण डॉ. येल्ला वेंकटेश्वर राव ने पखावज पर अपनी अंगुलियों का जादू चलाया। उन्होंने आदि ताल में पखावज के विविध पक्षों को प्रस्तुत करते हुए न केवल ताल के स्वरूप को उजागर किया, बल्कि उसकी भावनात्मक शक्ति को भी सामने रखा। बोल पढ़ंत और सितार की संगति ने उनके वादन को बहुआयामी बना दिया।
दूसरी संध्या में बेंगलुरु के प्रवीण गोड़खिंडी ने जब मंच संभाला तो बांसुरी की स्वर लहरियों ने रात्रि के तीसरे प्रहर में माधुर्य की छाया बिखेर दी। उन्होंने अपने पिता वेंकटेश्वर गोड़खिंडी की स्मृति में बनाए गए राग 'वेंकटेश कौंस' का वादन किया, जो राग चंद्रकौंस के समकक्ष है। इस रचना में उन्होंने नौ मात्रा का अंतरा बजाकर श्रोताओं को चकित कर दिया। उनकी विशेष बांसुरी, जिसे उन्होंने स्वयं पंचम तक जाने के लिए बनवाया था, इस वादन का मुख्य माध्यम बनी। तबला पर ईशान घोष ने उनकी प्रस्तुति को परिपूर्णता प्रदान की।
प्रवीण गोड़खिंडी ने संकटमोचन दरबार में अपने गुरु पं. ज्ञानप्रकाश घोष की बंदिश 'जग में कछु काम नर नारियन के नाहीं' को गाकर श्रोताओं को भावविभोर कर दिया। राग यमन में गायी गई यह बंदिश अपने स्वरूप में इतनी सघन थी कि श्रोताओं को स्थिर और मौन कर गई। यह एक आदर्श उदाहरण था कि कैसे एक शिष्य अपने गुरु की स्मृति में श्रद्धांजलि अर्पित करता है। राग यमन के सातों स्वर, उसके कल्याण थाट की गरिमा और गायक की साधना ने संपूर्ण दर्शकदीर्घा को एक ही भाव में पिरो दिया—भक्ति और साक्षात्कार का भाव।
प्रस्तुति क्रम की परंपरा को एक विशेष परिस्थिति में तोड़ते हुए, पं. अजय चक्रवर्ती के बाद बनारस के प्रो. राजेश शाह को सितार वादन के लिए मंच पर आमंत्रित किया गया। बीते चार दशकों से दीर्घा में श्रोता रहे प्रो. शाह पहली बार मंच पर सितार के साथ उपस्थित हुए। उन्होंने रात्रि के दूसरे प्रहर में राग झिंझोटी प्रस्तुत किया, जिसमें खमाज थाट का प्रभाव स्पष्ट था। निचले सप्तक के पूर्वांग और सातों स्वरों के संतुलन ने रचना को प्रभावी बना दिया। जयपुर के सेनिया घराने की परंपरा का निर्वाह करते हुए उन्होंने विलंबित लय में त्रिताल और फिर द्रुत गत बजाई। उनके साथ तबला पर रजनीश तिवारी की संगति ने प्रस्तुति को पूर्णता दी।
इस संध्या की शुरुआत चेन्नई की लावण्या शंकर के भरतनाट्यम से हुई। उन्होंने भगवान शिव को समर्पित 'मल्लारी' से अपनी प्रस्तुति का आरंभ किया और 'नाम रामायण' के माध्यम से सातों कांड की कथा को नृत्यमय अभिव्यक्ति दी। बालकांड से उत्तरकांड तक की झलक उनके नृत्य अभिनय में स्पष्ट रूप से झलकी। उन्होंने 'काशी पधारीं गंगा' शीर्षक से विशेष नृत्य रचना प्रस्तुत की, जिसमें काशी में उल्टी प्रवाहित होकर भी पापों को समाहित करने वाली मां गंगा के प्रति कृतज्ञता प्रकट की गई।