लुप्त होती जा रही 'पचाइयाँ की कुश्ती', नई पीढ़ी अखाड़ों में दांव पेंच, कबड्डी, गदा, डंबल और नाल से हुई दूर

 
वाराणसी। एक दौर था जब नागपंचमी की तैयारियां महीने भर पहले ही शुरू हो जाती थी। ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों के अखाड़े और खेल मैदानों की साफ-सफाई, पारंपरिक युद्ध कौशल के प्रदर्शन की तैयारियां शौकीन लोग बड़े चाव से करते थे। कुश्ती, कबड्डी, गदा, डंबल और नाल फेरने की तैयारी पूरे जोश के साथ की जाती थी। इन खेलों में युवा वर्ग तो रुचि लेता ही था। बुजुर्ग भी पीछे नहीं रहते थे। बुजुर्ग खुद रुचि लेते और युवाओं को प्रोत्साहित भी करते थे। लेकिन, आधुनिकता की अंधी दौड़ में अब तमाम पारंपरिक खेल लुप्त होते जा रहे हैं।

बरसात शुरू होते ही स्थायी अखाड़ों के साथ गांव-गांव के अस्थायी अखाड़े खोद दिए जाते थे। इनमें लोग रियाज करते थे। इसके अलावा ऊंची कूद, लंबी कूद, कबड्डी, डंबल, नाल आदि पर लोग हाथ आजमाते रहते थे। नागपंचमी पर दंगल और अन्य खेलों में अपने टोले-मोहल्ले की टीम को जिताने की होड़ लगी रहती थी। अब ये लुप्त प्राय: है। लोगों की रूचि घटने से ये प्रतियोगिता सिकुड़ सी गयी है। वजह, खिलाड़ियों का झुकाव पारम्परिक खेलों के बजाय राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में आयोजित होने वाले खेलों की तरफ अधिक है। नागपंचमी पर अखाड़ों में दंगल के प्रदर्शन होते थे, लेकिन अब गिने चुने स्थानों पर ही नागपंचमी पर अखाड़े सजते हैं।

मैदागिन स्थित मृत्युंजय महादेव मंदिर का अखाड़ा अब सिमट चुका है। आधुनिकता की दौर में जकड़े पहलवान अब यहां कम ही आते हैं अथवा गिने चुने दिन ही आते हैं। नवापुरा स्थित लक्ष्मी जी का अखाड़ा अब भी वहीं है, लेकिन यहां आने वाले पहलवानों की संख्या थोड़ी कम हो गई है। आधुनिकता और महंगाई से जकड़े लोग अब यदा कदा ही आते हैं। वहीं युवा पीढ़ी को इसमें कुछ खास लगाव नहीं है।