अरावली : भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला, पर्यावरण संतुलन की मजबूत ढाल

भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला अरावली एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। अरावली को लेकर आए हालिया फैसलों के विरोध में इसे बचाने के लिए सोशल मीडिया पर व्यापक मुहिम चल रही है। इस बीच अरावली पर्वतमाला के महत्व और इसके संभावित नुकसान को लेकर रोज नए-नए तथ्य सामने आ रहे हैं। अरावली पर लंबे समय से शोध कर रहे काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के प्रोफेसर सोन्यदीप चतुर्वेदी ने इसके वैज्ञानिक, भौगोलिक और पर्यावरणीय महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला।
 

रिपोर्ट : ओमकारनाथ

वाराणसी। भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला अरावली एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। अरावली को लेकर आए हालिया फैसलों के विरोध में इसे बचाने के लिए सोशल मीडिया पर व्यापक मुहिम चल रही है। इस बीच अरावली पर्वतमाला के महत्व और इसके संभावित नुकसान को लेकर रोज नए-नए तथ्य सामने आ रहे हैं। अरावली पर लंबे समय से शोध कर रहे काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के प्रोफेसर शयानदीप बनर्जी ने इसके वैज्ञानिक, भौगोलिक और पर्यावरणीय महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला।

 

800 किलोमीटर में फैली है पर्वत श्रृंखला

प्रोफेसर बनर्जी ने बताया कि अरावली पर्वतमाला लगभग 800 किलोमीटर लंबी है, जो गुजरात से शुरू होकर राजस्थान होते हुए हरियाणा और दिल्ली तक फैली हुई है। यह पर्वत श्रृंखला राजस्थान को दो भौगोलिक भागों में विभाजित करती है और थार मरुस्थल के विस्तार को रोकने में एक प्राकृतिक दीवार की तरह काम करती है।

 

250 करोड़ वर्ष पुरानी है पर्वत श्रृंखला

उन्होंने कहा कि अरावली विश्व की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक है। जहां हिमालय की आयु लगभग 6 करोड़ वर्ष (60 मिलियन वर्ष) मानी जाती है, वहीं अरावली करीब 250 करोड़ वर्ष (2.5 बिलियन वर्ष) पुरानी है। इतनी अधिक आयु होने के कारण समय के साथ इसका काफी क्षरण (श्राव) हो चुका है और आज जो स्वरूप दिखाई देता है, वह इसके मूल स्वरूप से काफी भिन्न है।

कॉपर, मैगनीज समेत खनिज की उपलब्धता 

प्रोफेसर बनर्जी ने बताया कि अरावली क्षेत्र में कॉपर, मैंगनीज सहित कई महत्वपूर्ण खनिज पदार्थ पाए जाते हैं। यदि विकास के लिए इन संसाधनों की आवश्यकता है, तो उनका दोहन सिस्टमैटिक और वैज्ञानिक तरीके से किया जाना चाहिए, न कि अंधाधुंध खनन के जरिए। उन्होंने चेतावनी दी कि अनियंत्रित विकास से प्राकृतिक संतुलन गंभीर रूप से बिगड़ सकता है।

अरावली के खत्म होने से बिगड़ जाएगा पर्यावरणीय संतुलन 

उन्होंने विकास के संतुलित मॉडल पर जोर देते हुए कहा कि यदि अरावली की लंबाई 800 किलोमीटर है, तो उसे पूरी तरह से छेड़ना नहीं चाहिए। सबसे पहले केवल 50 मीटर के सीमित क्षेत्र में ही विकास कार्य किया जाए और उसे भी प्राकृतिक वातावरण को संरक्षित करते हुए किया जाए। इसके लिए कम से कम 50 वर्षों की दीर्घकालिक योजना होनी चाहिए, न कि 10 वर्षों में पूरी पर्वतमाला को खत्म कर दिया जाए। ऐसा करने से पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ेगा, जिसकी भरपाई संभव नहीं होगी।

दिल्ली और जयपुर में दिखेगा दुबई जैसा रेगिस्तान
प्रोफेसर ने गंभीर चेतावनी देते हुए कहा कि अरावली का केवल 10 प्रतिशत हिस्सा ही 100 फीट से अधिक ऊंचा है। यदि शेष 90 प्रतिशत हिस्से को हटा दिया गया, तो इसके दुष्परिणाम पूरे उत्तर भारत को झेलने पड़ेंगे। उन्होंने कहा, “अगर ऐसा हुआ तो अगले 10 वर्षों में जयपुर और 20 से 25 वर्षों में दिल्ली रेगिस्तान में तब्दील हो सकती है। फिर रेगिस्तान देखने के लिए हमें दुबई जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, दिल्ली में ही रेगिस्तान देखने को मिलेगा।”

वर्षा में सहायक है अरावली पर्वत श्रृंखला

विशेषज्ञों के अनुसार अरावली पर्वतमाला मानसूनी हवाओं को प्रभावित कर वर्षा में सहायक भूमिका निभाती है। इसके साथ ही यह क्षेत्र जैव विविधता, भूजल संरक्षण और जलवायु संतुलन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। अरावली का संरक्षण न केवल राजस्थान या दिल्ली, बल्कि पूरे उत्तर भारत के पर्यावरणीय भविष्य से जुड़ा हुआ है। 

पर्यावरणविदों का मानना है कि यदि समय रहते अरावली को बचाने के लिए ठोस और दूरदर्शी कदम नहीं उठाए गए, तो इसके दुष्परिणाम आने वाली पीढ़ियों को भारी कीमत के रूप में चुकाने पड़ सकते हैं। ऐसे में अरावली का संरक्षण केवल एक क्षेत्रीय मुद्दा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय पर्यावरण सुरक्षा का प्रश्न बन चुका है।