बंगाल चुनाव 2026: बिहार के ‘सीमांचल मॉडल’ ने बढ़ाई टीएमसी की धड़कनें

 


कोलकाता, 31 दिसंबर (हि.स.)। साल 2025 की विदाई और 2026 के आगमन के साथ ही पश्चिम बंगाल की राजनीति में चुनावी बिसात बिछनी शुरू हो गई है। हाल ही में संपन्न हुए बिहार विधानसभा चुनाव के परिणामों, विशेषकर सीमांचल क्षेत्र में अल्पसंख्यक वोटों के एकीकरण के अनुभवों ने बंगाल के राजनीतिक विश्लेषकों और दलों को नई चर्चा का मुद्दा दे दिया है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि मजहबी आधार पर गठबंधन की कोशिशें तेज होती हैं, तो इसका सीधा नुकसान सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को मुस्लिम बहुल विधानसभा सीटों पर उठाना पड़ सकता है।

पूर्व तृणमूल विधायक और जनता उन्नयन पार्टी के संस्थापक हुमायूं कबीर द्वारा खुले तौर पर मुस्लिम वोटों के एकीकरण की अपील ने सियासी हलकों में हलचल बढ़ा दी है। जानकारों का कहना है कि इस तरह की रणनीति से राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ सकता है, जिसका अप्रत्यक्ष लाभ मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी को मिल सकता है। तृणमूल नेतृत्व पर पहले से ही तुष्टीकरण की राजनीति के आरोप लगते रहे हैं।

हाल ही में संपन्न बिहार विधानसभा चुनाव में सीमांचल क्षेत्र का अनुभव इस आशंका को और मजबूत करता है। वहां असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन ने 25 उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से पांच सीटों पर जीत दर्ज की और दो सीटों पर बेहद करीबी हार का सामना किया। राष्ट्रीय जनता दल से गठबंधन न होने के बाद पार्टी ने अकेले चुनाव लड़ते हुए सीमांचल पर पूरा ध्यान केंद्रित किया, जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या काफी अधिक है।

इसका असर यह हुआ कि सीमांचल की कई मुस्लिम बहुल सीटों पर अल्पसंख्यक वोट बंट गए। किशनगंज सीट पर कांग्रेस को छोड़कर न तो राष्ट्रीय जनता दल और न ही वाम दल जीत दर्ज कर सके। बलरामपुर सीट पर ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन केवल 389 वोटों से हार गई, जबकि ठाकुरगंज और प्राणपुर जैसी सीटों पर भी वोटों के बंटवारे ने महागठबंधन को नुकसान पहुंचाया।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सीमांचल में अल्पसंख्यक वोटों का बिखराव महागठबंधन के लिए भारी पड़ा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को इसका लाभ मिला। यही स्थिति अगर पश्चिम बंगाल में दोहराई जाती है और जनता उन्नयन पार्टी, ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन तथा इंडियन सेक्युलर फ्रंट आपसी तालमेल से मैदान में उतरते हैं, तो तृणमूल कांग्रेस की चुनावी गणित बिगड़ सकती है।

इंडियन सेक्युलर फ्रंट की स्थापना फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी ने 2021 के विधानसभा चुनाव से पहले मुस्लिमों और दलितों के लिए सामाजिक न्याय के नारे के साथ की थी। उस चुनाव में यह पार्टी वाम दलों और कांग्रेस के साथ गठबंधन में उतरी थी और एक सीट जीतने में सफल रही थी, जबकि सहयोगी दलों को सफलता नहीं मिली थी।

हुमायूं कबीर पहले ही संकेत दे चुके हैं कि वह खुद को किंगमेकर की भूमिका में देखते हैं। उनकी योजना कम से कम 180 विधानसभा सीटों पर उम्मीदवार उतारने की बताई जा रही है। हालांकि अभी तक न तो उनकी पार्टी का संगठन पूरी तरह जमीन पर खड़ा हुआ है और न ही किसी औपचारिक गठबंधन की घोषणा हुई है।

सीमांचल के अनुभव को देखते हुए यदि इन दलों के बीच औपचारिक समझौता होता है, तो राज्य की सियासी तस्वीर बदल सकती है। हालांकि यह भी तय नहीं है कि अल्पसंख्यक वोट पूरी तरह एकजुट होंगे या फिर अन्य दलों के नेताओं का व्यक्तिगत प्रभाव चुनावी नतीजों को प्रभावित करेगा।

इन संभावनाओं के बीच भारतीय जनता पार्टी यह आरोप लगा रही है कि हुमायूं कबीर चुनाव के बाद तृणमूल का समर्थन कर सकते हैं। वहीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हिंदू मतदाताओं को साधने के लिए राज्य में बड़े मंदिरों के निर्माण को लेकर सक्रिय नजर आ रही हैं। ऐसे में बीत रहस्य साल और आने वाला साल का विधानसभा चुनाव पश्चिम बंगाल की राजनीति के लिए बेहद अहम माना जा रहा है।

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हिन्दुस्थान समाचार / ओम पराशर