(साक्षात्कार) 'मुझे मुंबई में कभी कोई स्ट्रगल करना नहीं पड़ा': अभिनेता अशोक पाठक

 




'देख रहा है बिनोद' यह एक वाक्य इतना लोकप्रिय हुआ कि पूरे भारत में लोग लगातार यह बोलकर आनंद ले रहे हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी यह हल्की-फुल्की कहानी आज सिनेमा जगत में धूम मचा रही है। इस वेब सीरीज के बिनाेद अभिनेता अशोक पाठक ने हिन्दुस्थान समाचार से विशेष बातचीत की। उन्होंने कहा कि मैं मुंबई से बेहद प्यार करता हूं, यह मुंबई है, जिसने तीसरे दिन से मुझे काम दिया। मैं समझता हूं कि मुंबई के बड़े दिल में हर किसी के लिए जगह है।

अभिनेता अशोक पाठक ने बताया कि वह सीवान बिहार के हैं, पर मेरे पिता शादी से पहले ही रोजगार की तलाश में हरियाणा के फरीदाबाद में पहुंच गए थे। यहीं मेरा जन्म हुआ। पिता ने हेल्पर का काम शुरू किया, फिर फायरमैंन के रूप में काम किया। इसके अलावा उन्होंने परिवार चलाने के लिए बहुत से काम किए। पाठक ने बताया कि वर्ष 2000 में पिता की जॉब जिंदल में लग गई, तो थोड़ी आर्थिक हालत ठीक हुई। फरीदाबाद में ही प्रारंभिक शिक्षा हुई। 10 तक में यहीं पढ़ाई हुई, पर सच यह है कि हम थे पूरी तरह से नालायक, पढ़ने-लिखने में मन कभी लगा नहीं। मैंने अब तक 35 फिल्में की है। मैं घर का बड़ा बेटा हूं तो मेरी बहुत-सी पारिवारिक जिम्मेदारियां हैं, मैं उन्हें निभाता हूं। मेरे लिए परिवार बहुत ही महत्वपूर्ण है।

पढ़ाई में मन नहीं लगता था

घर का बड़ा बेटा था, पढ़ाई में मन नहीं लगता था, पर मैं घर की हालत समझता था, तो मैं 9वीं में मेडिकल स्टोर व डॉक्टरों को कॉटन बेचने जाता था। 20 किमी साइकिल चलाकर जब मुझे 25 रुपये ज्यादा मिलते थे। तब लगता कि आज तो मजा ही आ गया। 10वीं में किसी तरह से पास हुए। लगा कि पढाई से पीछा छूटे और परिवार को भी कुछ मदद हो तो फरीदाबाद में चप्पल की कंपनी में चप्पल घिसाई का काम करने लगा। वहां डाट पडती थी और पैसे भी कम थे तो छोड़ दिया। कई जगह काम किया पर कहीं जमा नहीं। तो घर वापस आए और पिता से कहा आगे की पढ़ाई करेंगे।

जीवन की तलाश

अशोक पाठक ने बताया कि उन्होंने 11वीं में कॉमर्स ले लिया। पढ़ाई में मन नहीं लगता था कतई। मेरी बैच में 15 लोग थे, अच्छे लोगों का कंपार्टमेंट आया। मैं 40 प्रतिशत के साथ क्लियर पास हुआ था। मेरे टीचर को भी यकीन नहीं हो रहा था कि मैं पास हो गया हूं, उन्होंने मुझसे पूछा तू क्या लिखकर आया कि पास हो गया। मैंने कहा कि मुझे भी नहीं पता कि मैं क्या लिख आया हूं। खैर, 40 प्रतिशत में क्या ही करता। कहीं एडमीशन भी नहीं मिलता और मन भी नहीं था पढ़ने का। सो फिर फरीदाबाद पहुंचे। पर फिर वहीं मजदूरी का काम किया, कभी सुपरवाइजर डाट रहा है, तो कहीं मालिक। चाय पीने के लिए भी डॉट पड़ रही है। मुझे जीवन का रास्ता क्या है, कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। मन कहता था कि कुछ और करो पर कुछ करने के लिए कुछ दिखना तो चाहिए।

यहां से जीवन ने ली करवट

बातचीत में पाठक ने बताया कि मेरे खानदान में किसी ने बीए नहीं किया है। मैंने भी सोचा बिना कॉलेज के नॉलेज नहीं होता। सो सिफारिश से मेरा एडमीशन हिसार के सीआरएम जाट कॉलेज में बीए में करा दिया गया। मैं गाना गाता था, पर कॉलेज जाने पर पता चला कि मैं गाने के लिए नहीं बना। यहां मुझे पता चला कि थिएटर भी कोई चीज है। मेरे मित्र ने कहा कि गर्ल्स कॉमन रूम में थिएटर का ऑडिसन चल रहा है चलें, हुआ तो ठीक नहीं तो गर्ल्स कॉमन रूम कैसा होता है यह देख आते हैं।

नाटक की तरफ मन आया

किसी तरह से नाटक में सिलेक्ट हो गया। मुझे एक छोटा सा रोल मिला। मुझे लगा कि जैसे मुझे मेरा मकसद मिल गया है। मैंने नाटक के सभी के रोल याद कर लिए। रिहर्सल के दौरान लीड रोल वाला बंदा नहीं आया तो डायरेक्टर ने कहा कि किसी को उसका रोल याद हो वह कर ले बाद में उसे समझा देंगे। मैं सामने आया और इश्वर के आर्शिवाद से मैंने इतना अच्छा किया किया कि लीड रोल को हटा कर मुझे लीड ले लिया गया। सुरेंद्र शर्मा जी का नाटक समझदार लोग इतना चला कि हमने, जोनल जीते, इंटर जोनल जीते, इंटर युनिवर्सिटी जीते अंत में हम थिएटर का नेशनल में जीत कर लाए। मैं हर जगह बेस्ट एक्टर रहा। अखबारों में मेरी जमकर फोटो छपी। पिता को लगा कि बेटे ने कुछ अलग कर लिया है। कॉलेज की फीस मांफ हो गई।

नहीं मिला नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में नहीं हुआ

कॉलेज के बाद मैंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में ट्राय किया, वहां मेरा हुआ नहीं, सो मैं निराश हो गया। मुझे लगा मैं अच्छा एक्टर हूं यह सोचना मेरा भ्रम था। मैंने नाटक छोटा व जिंदल में वाटरट्रीटमेंट में लग गया। 2007 में मैंने एनएसडी का अप्लाई किया, फिर नहीं हुआ। मैं निराश हो रहा था। तभी मुझे पता चला भारतेंदु नाटृय अकादमी के बारे में जो लखनऊ में है। वहां 12 लोगों का सिलेक्शन होता है, फीस नहीं देनी पड़ती और दो हजार रूपए भी मिलते हैं। मैंने वहां अप्लाई किया और वहां मेरा हो गया। इसी दौरान मुझे पहली फिल्म मिली सूत्रा द राइजिंग। यहां से मेरा करियर शुरू हो गया।

मुझे मुंबई में कभी कोई स्ट्रगल करना नहीं पड़ा

भारतेंदु नाटय अकादमी से निकलने के बाद मैंने तय कर लिया कि अब मैं मुंबई जाने को तैयार हो गया हूं। पर पैसे थे नहीं, मेरे गुरू डॉक्टर सुरेंद्र मलिक साहब ने मुझे बहुत सपोर्ट किया। उन्होंने किताबें दीं, नाटक के लिए प्रेरणा दी। उन्होंने मुझसे कहा कि आप नाटक का डायरेक्शन कर लो। कुछ पैसे मिलेंगे। मुझे वहां से 45 हजार रूपए मिले मैं चार बंगला में पहुंचा जहां मेरे पांच बैचमेट वन रूम किचन में रहते थे। छठा मैं पहूंचा। पहुंचने के तीसरे दिन सोनी लिव लॉंच हो रहा था। मेरे दोस्त ने कहा तू गा लेता है, चल ऑडिसन दे दे। मैंने ऑडिसन दिया। मुझे काम मिल गया। मैंने कई ऑडिशन दिए। एक महीने बाद मैं बीच में था मुझे कॉल आया कि आप सिलेक्ट हो गए हो, उसने मुझे उसने कहा कि दो दिन का काम है, आपको परसेवेंटी थाउजेंट मिलेंगे। मैं समझा कि वह 17 हजार दे रहा है। पर बाद में पता चला कि वह 70 हजार था। दो दिनों के काम में मुझे सवा लाख रूपए मिले थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इतना पैसा क्या करूंगा। मेरे पिता ने जिंदगी भर मेहनत की पर वे एक लाख रूपए नहीं बचा पाए, यहां मैं दो दिन में इतने पैसे पा गया था।

जीवन में सबसे अच्छा समय

मैं समझता हूं कि मेरे जीवन में सबसे खूबसूरत दिन तब थे जब मैं 30 किलोमीटर साइकिल चलाकर जाता था, डॉक्टरों को कॉटन बेचते समय कहता था कि सिर्फ 10 रुपए मार्जिन ले रहा हूं, जबकि मैं 30 रूपए मर्जिन ले रहा होता था। मैंने बहुत से छोटे-मोटे काम किए। इसे मैं संघर्ष नहीं मानता, मैं मानता हूं कि इन्हीं दिनों ने मुझे तैयार किया। ये अनुभव ही हैं, जिन्होंने मुझे कलाकार बनाने में मदद की।

हम सोशल मीडिया में हैं, पर सोशल नहीं हैं

आज की भागती-दौड़ती जिंदगी में, मोबाईल ने हमारी जिंदगी को संकुचित कर दिया है। हम शोशल साइट पर है, पर हम सोशल नहीं हैं। एक ही घर में चार लोग हैं, वे आपस में बात नहीं करते सोशल मीडिया पर दूर के एक अनजान से नकली बातें कर रहे होते हैं। पंचायत इस सब से अलग कहानी है। यहां एक सीधी-साधी कहानी को लेकर इतनी लोकप्रिय हुई इससे पता चलता है कि लोग अपने रूट में वापस आ रहे हैं। पंचायत की लोकप्रियता बताती है कि लोगों के मन में प्रेम, दोस्ती भाईचारा भरा हुआ है।

शिक्षा से मिटेगा जातिवाद

पाठक ने एक सवाल के जवाब में कहा कि मुझे इस बात का दुख होता है कि आज के समय में कई बार जब खबर आती है कि कोई घोडे पर चढ़कर जा रहा है, तो किसी जाति को यह नागवार है। मैं समझता हूं इंसान सभी बराबर हैं। सभी का खून एक हैं। जात-पात यह अशिक्षा से जुड़ा हुआ है। इसे कोई बदल सकता है तो वह है एज्युकेशन है। जब तक लोगों को सही एज्युकेशन नहीं मिलता, तब तक आप चाहे जो करले यह दुर्भाग्य मिटेगा नहीं।ृ

हिन्दुस्थान समाचार / लोकेश चंद्र दुबे / सुनील कुमार सक्सैना