वेदों के मूल स्वरूप के अजेय रक्षक हैं विकृति पाठ, घनपाठ ने रचा नया इतिहास: शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद
शंकराचार्य जी ने कहा कि इन पाठ विधियों के माध्यम से मंत्रों के प्रत्येक अक्षर, स्वर और मात्रा की त्रुटिहीन शुद्धता बनी रहती है। विशेष रूप से घनपाठ एक ऐसी जटिल व्यवस्था है, जिसमें मंत्रों का पाठ इस तरह किया जाता है कि यदि एक भी अक्षर या स्वर में गलती हो जाए तो वह तुरंत पकड़ में आ जाती है। उन्होंने कहा कि यही कारण है कि वेदों की मौखिक परंपरा को यूनेस्को ने मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता दी है।
इस अवसर पर सरस्वती ज्योतिष्पीठ द्वारा यजुर्वेद के घनपाठ का पहली बार विधिवत प्रकाशन किया गया, जिसे वेदमूर्ति डॉ. मणिकुमार झा ने अपने अथक परिश्रम से तैयार किया है। डॉ. झा स्वयं भी ख्यातिलब्ध घनपाठी हैं। इस ग्रंथ का प्रकाशन ज्योतिर्मठ बदरिकाश्रम हिमालय के प्रकाशन सेवालय द्वारा किया गया।
कार्यक्रम की शुरुआत चारों वेदों के विद्वानों द्वारा चतुर्वेद पारायण से हुई। इसके बाद विद्वानों का बसंत पूजन किया गया। घनपाठियों द्वारा वैदिक मंत्रोच्चार के बीच शंकराचार्य जी महाराज के चरण पादुका पूजन का आयोजन भी हुआ। कार्यक्रम का संचालन वैदिक विद्वान पांडुरंगा पुराणिक ने किया।
इस समारोह में देश के अनेक प्रतिष्ठित वैदिक विद्वान और घनपाठी उपस्थित रहे। इनमें प्रो. हृदयरंजन शर्मा, प्रो. बी. किशोर मिश्र, प्रो. राममूर्ति चतुर्वेदी, प्रो. पतंजलि मिश्र, प्रो. महेंद्र पाण्डेय, प्रो. सुनील कात्यान, प्रो. कमलेश झा सहित अनेक वैदिक आचार्य और घनपाठी विद्वान शामिल रहे। साथ ही साध्वी पूर्णांबा दीदी, ब्रह्मचारी परमात्मानंद सहित बड़ी संख्या में काशीवासी भी इस ऐतिहासिक आयोजन के साक्षी बने।
कार्यक्रम में वक्ताओं ने कहा कि आज के डिजिटल युग में भी वेदों की मौखिक परंपरा यह सिखाती है कि मानव स्मृति, शुद्ध उच्चारण और अनुशासन के माध्यम से ज्ञान को सबसे सुरक्षित रूप में संरक्षित किया जा सकता है। यह परंपरा न केवल भारत, बल्कि पूरी मानव सभ्यता की अमूल्य धरोहर है।

