जयंती विशेष: उत्तर-दक्षिण भारतीय एकता के सेतु थे महाकवि ‘सुब्रह्मण्यम भारती’, काशी प्रवास में सीखी साहित्य की बारीकियां

varanasi
WhatsApp Channel Join Now
वाराणसी। काशी साहित्य और विद्वानों की नगरी कही जाती है। यहां विद्वानों की कोई कमी नहीं है। तुलसीदास से भारतेंदु तक, काशी ने अनेकों साहित्यकारों को श्रेष्ठ बनाया है। आज हम ऐसे ही एक महान साहित्यकार के बारे में बताने वाले हैं, जिनका जन्म तो तमिलनाडु में हुआ, लेकिन काशी ने उनका नाम  इतिहास के पन्नों में दर्ज कराया। वह शख्स हैं, हिंदी भाषा के महान कवि सुब्रह्मण्यम भारती। 

सुब्रह्मण्यम भारती को बनारस में ही साहित्य की समझ, संस्कृति के गौरव और अंग्रेजी व संस्कृत भाषाओँ का ज्ञान कराया। उन्होंने काशी प्रवास के दौरान ही बंकिमचन्द्र चटर्जी विरचित वंदेमातरम् का तमिलभाषा में अनुवाद किया। बाद में यह गीत ही उनके जीवन का मूलमंत्र बन गया। 

महाकवि सुब्रह्मण्यम भारती का जन्म भारत के दक्षिणी प्रांत तमिलनाडु के एटटयपुरम् गांव में एक तमिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा स्थानीय विद्यालय में ही हुई। वे बचपन से अत्यंत मेधावी थे। जिसके कारण वहां के राजा ने उन्हें 'भारती' की उपाधि दी। जब वे किशोरावस्था में थे तभी उनके माता-पिता का निधन हो गया। उन्होंने सन् 1897 में अपनी चचेरी बहन चेल्लमल के साथ विवाह किया। परंपरा है कि दक्षिण भारत में लोग अपनी चचेरी बहन अथवा ममेरी बहन से शादी कर सकते हैं। महाकवि बाहरी दुनिया को देखने के बड़े उत्सुक थे। विवाह के बाद सन् 1898 ईस्वी में वे उच्च शिक्षा के लिए काशी आ गए। अगले चार वर्ष उनके जीवन में 'खोज' के वर्ष थे।

हनुमान घाट को बनाया अपनी कर्मभूमि

11 दिसंबर 1882 को जन्मे सुब्रह्मण्यम भारती प्रारंभिक शिक्षा लेने के बाद यहां आए थे। उन्होंने काशी के सेंट्रल हिंदू स्कूल में अध्ययन किया था। गंगा किनारे हनुमान घाट पर रहने लगे। उन्होंने कई समाचार पत्रों में पत्रकार के तौर पर अपनी सेवाएं भी दी। वाराणसी प्रवास के दौरान ही सुब्रह्मण्यम भारती को हिंदू अध्यात्मवाद और राष्ट्रसेवा के मर्म का पता चला। उन्होंने काशी से ही हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषाएं सीखी। काशी में ही रहकर अपनी दाढ़ी भी बढ़ाई और संत व सिख की वेशभूषा में आ गए। 20वीं सदी के शुरू होते ही वह तमिलनाडु लौट गए और दरबारी कविता पाठ और पत्रकारिता की।

1905 में दोबारा हुआ काशी आगमन

सुब्रह्मण्यम भारती वर्ष 1905 में कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने दोबारा वाराणसी आए। अधिवेशन में वंदेमातरम के गायन के पूर्व गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की भतीजी सरला टैगोर ने इस गीत का दोबारा अभ्यास करके महाकवि के आंगन में गाया था। उस समय वहां पं० मदन मोहन मालवीय समेत अनेक वरिष्ठ नेता व आजादी के आदोलन से जुड़े लोग एकत्र थे। इसी समय वह स्वामी विवेकानंद, सिस्टर निवेदिता, महामना पंडित मदन मोहन , लाल-बाल-पाल व दादा भाई नौरोजी से भी मिले। यहां प्रायः उनके आंगन में क्रांतिकारियों का जमावड़ा होता था और देशभक्ति की कविताओं से वह लोगों जोश भरते थे। महाकवि सुब्रमण्य भारती उत्तर-दक्षिण भारत की एकता के सेतु थे। अपनी कविताओं में उन्होंने काशी-तमिल की सांस्कृतिक विरासत का भावपूर्ण वर्णन किया है।

हमारे टेलीग्राम ग्रुप को ज्‍वाइन करने के लि‍ये  यहां क्‍लि‍क करें, साथ ही लेटेस्‍ट हि‍न्‍दी खबर और वाराणसी से जुड़ी जानकारी के लि‍ये हमारा ऐप डाउनलोड करने के लि‍ये  यहां क्लिक करें।

Share this story