BHU में महाश्वेता देवी पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी, लेखन और मानवीय सरोकारों पर हुआ व्यापक विमर्श

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वाराणसी। बीएचयू के बांग्ला विभाग तथा सामाजिक विज्ञान संकाय के महिला अध्ययन एवं विकास केंद्र के संयुक्त तत्वावधान में “स्वातंत्र्योत्तर स्त्री रचनाकार और महाश्वेता देवी: मानवीय सरोकार एवं स्त्री संदर्भ” विषय पर एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। उद्घाटन सत्र की शुरुआत विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मालवीय की प्रतिमा पर माल्यार्पण और कुलगीत गायन से की गई। संगोष्ठी में वक्ताओं ने महाश्वेता देवी के लेखन और मानवीय सरोकारों पर विमर्श किया। 

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बांग्ला विभाग की अध्यक्ष डॉ. सुमिता चटर्जी ने संगोष्ठी के प्रारूप को प्रस्तुत करते हुए स्वागत वक्तव्य में कहा कि यह संगोष्ठी महाश्वेता देवी सहित अन्य स्वातंत्र्योत्तर स्त्री रचनाकारों के साहित्य और उनके मानवीय सरोकारों को समझने का एक प्रयास है, जो अगले दो दिनों तक चलेगा। इस अवसर पर साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह ने मुख्य अतिथि के रूप में महाश्वेता देवी के साहित्यिक और सामाजिक योगदान को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि महाश्वेता देवी का साहित्य केवल कलात्मक दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से भी अत्यंत प्रभावशाली है। उन्होंने बताया कि महाश्वेता देवी की इच्छा थी कि भारतीय भाषाओं के बीच एक संवाद स्थापित करने के लिए कोई पत्रिका निकाली जाए, जिसकी पूर्ति उनके पुत्र नवारुण ने ‘भाषा सेतु बंधन’ नामक बहुभाषिक पत्रिका के माध्यम से की।

प्रख्यात कवि एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त प्रो. अरुण कमल ने उद्घाटन भाषण में कहा कि महाश्वेता देवी के उपन्यासों में संघर्ष की भावना प्रमुख रही है। उनके अनुसार, महाश्वेता देवी ने मृत्यु और अंधकार के प्रतीकों का प्रयोग करते हुए स्त्री के आत्मबोध को रेखांकित किया है। उनके उपन्यास ‘1084वें की माँ’ में स्त्री के अस्तित्व, पहचान और विरोध की गहरी पड़ताल की गई है।

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कला संकाय की अध्यक्ष प्रो. सुषमा घिलिड्याल ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि महाश्वेता देवी का नाम ही उनके जीवन और साहित्यिक संघर्ष को परिभाषित करता है। समकालीन कविता की प्रख्यात कवयित्री एवं स्त्रीवादी चिंतक प्रो. सविता सिंह ने बीज वक्तव्य में महाश्वेता देवी के लेखन का स्त्रीपाठ करते हुए उन्हें "फेमिनिस्ट जीनियस" करार दिया। उन्होंने कहा कि महाश्वेता देवी की रचनाओं में रुदाली, द्रौपदी और शिकार जैसे पात्रों के माध्यम से स्त्री जीवन की जटिलताओं, पितृसत्ता के प्रतिरोध और आत्मसम्मान की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। सत्र का संचालन डॉ. प्रीति त्रिपाठी (हिन्दी विभाग) और धन्यवाद ज्ञापन इतिहास विभाग की प्रो. मालविका रंजन ने किया।

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