बीएचयू में भक्ति साहित्य पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी, मध्यकालीन साहित्य के सामाजिक स्वरूप पर हुई चर्चा
वाराणसी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के महिला महाविद्यालय, हिंदी अनुभाग द्वारा आयोजित तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आज समापन हुआ। ‘मध्यकालीन हिंदी साहित्य: सामाजिक स्वरूप एवं लोकरंग’ विषयक इस संगोष्ठी के अंतिम दिन चौथे सत्र का विषय ‘भक्ति का लोकरूप एवं तत्कालीन परिवेश’ था, जिसकी अध्यक्षता प्रो. राजकुमार ने की। उन्होंने कहा कि मध्यकाल को "आरंभिक आधुनिककाल" कहना अधिक उचित होगा। इस काल का साहित्य सामाजिक और राजनीतिक आलोचना के साथ-साथ आध्यात्मिक चिंतन को भी समाहित करता है।
इंग्लैंड से आईं मुख्य अतिथि डॉ. जय वर्मा ने रामचरितमानस की समाज पर सकारात्मक प्रभाव की चर्चा की। विशिष्ट अतिथि प्रो. राजन यादव ने भक्ति साहित्य को गोरखनाथ की परंपरा से जोड़ा और बताया कि भक्तिकालीन साहित्य में गेयता और संगीत का विशेष महत्व रहा है। सारस्वत अतिथि प्रो. सत्यपाल शर्मा ने कहा कि भक्तिकाव्य सामंतवाद के खिलाफ जनजागरण का आंदोलन था। उन्होंने सूरदास, कबीर और जायसी जैसे कवियों की कृतियों में लोक चेतना और सामाजिक बदलाव की दृष्टि से महत्वपूर्ण योगदान बताया। उन्होंने कहा कि भक्तिकाव्य में समरसता और समानता का संदेश निहित है।
पंचम सत्र में प्रो. वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने कहा कि मध्यकालीन साहित्य ने जीवन जीने की कला सिखाई और यह लोकसंपृक्ति का काल था। समापन सत्र की अध्यक्षता कर रहीं प्रो. रीता सिंह ने भक्ति साहित्य को स्त्री मुक्ति से जोड़ते हुए कहा कि इस काल के साहित्य में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मुख्य अतिथि प्रो. अरुण कुमार सिंह ने भक्तिकाल को समाज सुधार का आधार बताया। इस संगोष्ठी में उज़्बेकिस्तान और मॉरीशस के विद्वानों ने भी भाग लिया, जिन्होंने मध्यकालीन साहित्य की सांस्कृतिक विविधता और वैश्विक प्रभाव पर अपने विचार रखे।
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