पिया मेंहदी लिया द मोतीझील से जाके साइकिल से ना...
सावन की फुहार और हरियाली को देख किसका मन नहीं चहकता। पेड़ की डालों पर पड़े झूले और सखियों संग पेंग मारती युवतियों और महिलाओं को देख हर किसी का मन झूम उठता है। मोर नाचने लगते हैं और हर मनुष्य के भी मन मयूर नाचने लगते हैं। ऐसे में कजरी गीत का आनंद ही कुछ और है। बनारस और मिर्जापुर की कजरी दुनिया में मशहूर हैं। शहरी संस्कृति में अब कजरी करीब -करीब खो सी गई है। शहरों में अब उतने पेड़ ही नही जहां झूले डाले जांए और उससे भी बड़ी बात ये है कि आज के डिजिटल दुनिया में अब उन्हें इसके लिए फुर्सत कहां है। बस वही इंटरनेट और सोशल मिडिया पर लोगबाग कजरी को सुन लेते हैं।
त्यौहारों पर कजरी की होती थी धूम
पहले नागपंचमी, रक्षाबंधन के त्यौहार में महिलाएं खासकर लड़कियां कजरी गुनगुनाने लगती थी। वहीं, आज भी सावन में गांव देहातों में युवतियां पेड़ों या कच्चे मकानों के धरनियों पर झूला लगाकर झूला झूलते हुए कजरी गीत गाकर आपस मे हंसी -ठिठोली करती है। हालांकि आधुनिकता की दौड़ में धीरे धीरे यह परंपरा अब विलुप्त होती जा रही है।
प्रेम -वियोग और मिलन का रूप है कजरी
कजरी वह विधा है जिसमें सावन, भादों के प्रेम, वियोग और मिलन का चेहरा सामने आता है। सावन का सौंदर्य और कजरी की धुनों की मिठास वर्षा बहार का जो वर्णन लोक गायन की विधा कजरी में है वह कहीं और नहीं। एक दशक पहले तक सावन शुरू होते ही गांवों में पटोहे की शान समझी जाने वाली कजरी गाती युवतियों की जुगलबन्दी की मिठास सुनने के लिए राहगीर भी कुछ पल ठहर जाते थे। लेकिन आधुनिक परंपरा, पाश्चात्य जीवनशैली का असर और मोबाइल के मोहपास के कारण अब कजरी धीरे धीरे किताबों के पन्नों तक सिमटती जा रही है।
कजरी विधा से हिन्दी साहित्य के दिग्गज भी नहीं बच पाएं
करीब ढ़ेड़ दशक पहले तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में कजरी की खासी धूम हुआ करती थी, लेकिन अब इसको जानने वाले लोग गिने चुने रह गये हैं। सावन के शुरूआत से ही कजरी के बोल और झूले गांव-गांव की पहचान बन जाते थे। दिन ढ़लने के बाद गांव में कजरी गायन की मंडलियां जुटती थीं। देररात तक महिलाओं का समूह में कजरी का दौर चलता था। लेकिन अब दूर घरों में टीवी सीरियल और मोबाइल के इर्द-गिर्द अपने को कैद कर लिया है। एक ओर भोजपुरी के सन्त कवि लक्ष्मीसखी, रसिक किशोरी आदि को कजरी ने प्रभावित किया, वहीं अमीर ख़ुसरो, बहादुरशाह ज़फर, सुप्रसिद्ध शायर सैयद अली मुहम्मद शमशाद, हिन्दी के कवि अम्बिकादत्तव्यास, श्रीधर पाठक, द्विज बलदेव, बदरीनारायण उपाध्याय श्प्रेमधनश् आदि भी कजरी के आकर्षण से नहीं बच सके। आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी अनेक कजरी गीतों की रचना कर लोक-विधा से हिन्दी साहित्य को सुसज्जित किया। उन्होंने कजरी गीतों में प्रेम, श्रृंगार और विरह को बखूबी दर्शाया है।
विलुप्त हो रही है कजरी
अगर कजरी की बात की जाय तो यह पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रसिद्ध लोकगीत है। यह अर्ध-शास्त्रीय गायन की विधा के रूप में भी विकसित हुआ और इसके गायन में बनारस घराने की ख़ास दखल है। शहरी क्षेत्रों में भले ही संस्कृति के नाम पर फिल्मी गानों की धुन बजती हो। लेकिन गांवों में आज भी ये लोकविधा आपको आसानी से सावन में देखने को मिल जाएगी। ‘लोकगीतों की रानी’ कजरी सिर्फ गाने भर ही नहीं है बल्कि यह सावन की सुन्दरता और उल्लास को दिखाती है।
गांवों में अब भी गायी जाती है कजरी
अब धीरे - धीरे कजरी शहरी परिदृश्य में गुम होती जा रही है। अब न तो कजरी के बोल सुनाई पड़ते हैं और न ही पेड़ों पर झूले ही पड़ते हैं। शहरों में तो करीब करीब पूरी तरह से ही ये लोकविधा विलुप्त हो गयी है, लेकिन गांव की माटी में सावन की सोंधी खुशबु अब भी आपको मिल जाएगी और पेड़ों पर पड़े झूले पर महिलाएं और युवतियां कजरी गुनगुनाती आपको बरबरस ही अपनी ओर खींच लेंगी। चलते -चलते आपको कुछ प्रसिद्ध कजरी के बोल से रूबरू करवाते चलते हैं। ...
* झूला झूलै नंदलाल, संग राधा गुजरी
कहैं राधा जी पुकार, पेगें मारऽ सरकार
उड़े पगिया तोहार, मोरी उड़े चुनरी।
* हरि हरि बरसे बदरवा गुमानी,
परत रहे पानी रे हारी।
हरि हरि बरसे बदरवा गुमानी,
परत रहे पानी रे हारी।
*सुनो मोरे सइयाँ, कहली कई दैयाँ, हम नइहरवा जइबे ना
अब तो आ गइलैं सवनवाँ, हम नइहरवा जइबै ना
*सावन में सब सखिया हमरी करके खूब तइयारी
रूम-झूम के कजरी गावैं पहिन-पहिन के सारी
जाके हमहूँ गइबै ना, हमार लागल बा धियनवाँ
जाके हमहूँ गइबै ना...
*पिया मेहँदी लिया द, मोती झील से,
जाके साईकिल से ना,
बलम मेहंदी लिया द, मोती झील से,
जाके साईकिल से ना,
पिया मेहंदी लिया द मोती झील से
जाके सायकिल से ना,
पिया मेहंदी लिया द, छोटी ननदी से पिसवा द,
छोटी ननदी से पिसवा द,
छोटी ननद से पिसवा द,
छोटी ननदी से पिसवा द,
हमरे हथवा में,
हमरे हथवां में लगा द कांटा कील से,
हमरे हथवा में लगा द कांटा कील से,
जाके सायकिल से ना,
पिया मेहंदी लिया द मोती झील से,
जाके सायकिल से ना......
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