समय की मार: गुम हो गयी छोटे गुरु और बड़े गुरु की गूंज, आधुनिकता की अंधी दौड़ में सोशल मीडिया ने बच्चों को जकड़ा
वाराणसी। एक जमाना वह भी था जब ‘छोटे गुरु के बड़े गुरु का नाग लो भई नाग लो’ की आवाज कान में पड़ते ही पता चल जाता था कि आज नागपंचमी है। वजह, नागपंचमी की सुबह-सुबह की बच्चों की टोलियां नाग देवाओं के चित्र लेकर दरवाजे-दरवाजे दस्तक देते थे और इस दौरान ‘छोटे गुरु और बड़े गुरु का नाग लो भई नाग लो’ की आवाज लगाते थे। नागपंचमी मंगलवार को हैं। गली हो या सड़क, परंपरागत मोहल्ले हों या शहरी कॉलोनी। हर घर की ड्योढ़ी पर सजेंगे नाग देवता के चित्र और हर घर में चढ़ेगा उन्हें दूध और लावा का भोग। जी हां, यह सब तो परम्परा के अनुसार होगा ही, सिर्फ नहीं सुनाई देगी तो ‘छोटे गुरु और बड़े गुरु’ की गूंज। आधुनिकता की अंधी दौड़ में सोशल मीडिया ने बच्चों को ऐसा जकड़ लिया कि इस परम्परा पर ग्रहण सा लग गया है।
जी हां, आज की युवा पीढ़ी इस बात को कम ही जानती होगी कि महज कुछ वर्षों पहले तक मोहल्लों में नाग देवता का चित्र बेचने के लिए ‘छोटे गुरु के बड़े गुरु का नाग लो भई नाग लो’ की हांक लगाते बच्चों की टोली निकल पड़ती थी। बच्चों की यह टोली नागपंचमी के एक-दो दिन पहले से ही गली-गली भ्रमण करने लगती थी। बच्चों के इस हांक की आवाज कान में पड़ते ही लोग जान जाते थे कि नागपंचमी फलां दिन को हैं। बच्चों की टोली आज भी निकलती है, लेकिन इक्का-दुक्का और इस टोली का मूल मकसद सिर्फ और सिर्फ नागदेवता के चित्र को बेचना होता है। उनको यह नहीं पता कि ‘छोटे गुरु के बड़े गुरु का नाग लो भई नाग लो’ की हांक भी लगायी जाती है। पूछने पर गोलू, सोनू, मोनू, मनीष, दिवाकर, चंदू आदि बताते हैं कि यह आवाज तो हमने कभी सुनी ही नहीं और किसी ने हम लोगों को इसके बारे में बताया भी नहीं। अंकल, आप बता रहे हैं तो जान रहे हैं।
आज की युवा पीढ़ी यह भी नहीं जानती कि कौन हैं यह छोटे गुरु और बड़े गुरु। उनको यह भी नहीं पता कि बड़े गुरु हैं अष्टाध्यायी के रचनाकार महर्षि पाणिनि बड़े गुरु और छोटे गुरु हैं अष्टाध्यायी पर महाभाष्य लिखने वाले ऋषि पतंजलि। आज की युवा पीढ़ी तो बस सोशल मीडिया की दीवानी है। हाथ में मोबाइल और उसके कीटपैड पर थिरकती अंगुलियां। सोनल, प्रीतम, वीरेंद्र, सुमित, अमित, नीरज आदि कुछ युवाओं से बातचीत की गयी तो उनका तर्क था कि काशी वैसे ही देश-दुनिया के शहरों का गुरु ही नहीं महागुरु है। काशी का हर इंसान, चाहे वह छोटा या बड़ा, सभी गुरु है। छोटा है तो छोटा गुरु और बड़ा है तो बड़ा गुरु। यहीं एकमात्र जीवंत शहर है, जहां हर कोई अपने-आप को गुरु ही मानता है। पान का बीड़ा घुलाकर अलमस्त जीवन जीने की कला तो इस शहर के वाशिंदें ही जानते हैं, कोई और नहीं। हम तो बस यहीं जानते हैं। इन युवाओं के तर्क में कुछ हद तक सच्चाई भी है।
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