कहानी स्वतंत्रता संग्राम की... आजादी की लड़ाई में काशी के तवायफों का भी था अहम रोल, घुंघरुओं की थाप से हिला दी थी अंग्रेजी हुकुमत की नींव

Varanasi dalmandai
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वाराणसी। काशी का स्वतंत्रता संग्राम में इतिहास लंबा रहा है। यहां के युवा और बुजुर्ग सड़क पर लड़ रहे थे, तो काशी की तवायफें उनका हौसला आफजाई कर रहीं थीं। चौक थाने के बगल में बसा दालमंडी क्षेत्र आज पूर्वांचल में बिज़नेस का बड़ा हब बन गया है। लेकिन कभी इस गली में कोठे हुआ करते थे, जिससे निकलने वाली घुंघरुओं की थाप ने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला कर रख दी थी। 

उस दौर में राजेश्वरी बाई, जद्दन बाई से लेकर रसूलन बाई तक के कोठों पर सजने वाली महफ़िलें केवल मनोरंजन का केंद्र ही नहीं होती थीं, बल्कि यहीं से स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन की रणनीति तैयार होती थी।

'फुलगेंदवा न मारो, मैका लगत जोबनवा (करेजवा) में चोट...', जैसे गीत से मशहूर रसूलन बाई ने महात्मा गांधी के स्‍वदेशी आंदोलन के दौरान से ही आभूषण पहनना छोड़ दिया था। अपनी प्रतिज्ञा के मुताबिक, उन्‍होंने देश के आजाद होने के बाद ही विवाह किया था। आजाद भारत में रसूलन बाई को संगीत नाट्य अकादमी पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया गया था।

कला मर्मज्ञ रामशंकर उर्फ़ रामबाबा बताते हैं कि 'आजादी के आंदोलन के दौर में दालमंडी ही नहीं, राज दरबार, रईसों की कोठियों के अलावा मंदिरों में भी जमने वाली संगीत की महफिलों में क्रांतिकारी इकट्ठा होते थे। ठुमरी गायिका राजेश्‍वरी बाई तो हर महफिल में खास बंदिश 'भारत कभी न बन सकेला गुलाम खाना...', गाना नहीं भूलती थीं।'

उन्होंने आगे बताया, 'मशहूर अभिनेत्री नर्गिस की मां और संजय दत्त की नानी जद्दन बाई के दालमंडी कोठे पर आजादी के दीवानों को शरण मिलती रही। अंग्रेजों ने कई बार उनके कोठे पर छापा मारा। प्रताड़ना से तंग आकर जद्दन बाई को दाल मंडी की गली तक छोड़नी पड़ी थी। इन सबके वावजूद म‍हफिल से मिलने वाले पैसों को तवायफें चुपके से क्रांतिकारियों को दे दिया करती थीं।'

वरिष्‍ठ पत्रकार अमिताभ भट्टाचार्य बताते हैं कि दालमंडी में कोठों पर क्रांति की कहानियां लिखने वाली तवायफों की सूची में दुलारी बाई का नाम सबसे ऊपर है। वारेन हेस्टिंग्‍स ने जब सेना के साथ वाराणसी में प्रवेश किया था, उस वक्‍त दुलारी घुंघरू उतार अपने खास नन्‍हकू को खोजने गलियों में दौड़ पड़ी थीं।

नन्‍हकू के मिलते ही दुलारी के मुंह से निकला, 'तिलंगो ने राजा साहब को घेर लिया है।' बस फिर क्‍या था। दुलारी की बातें सुन नन्‍हकू शिवाला घाट की ओर दौड़ पड़ा। कुछ समय बाद खबर आई कि उसने कई अंग्रेजों के सिर कलम कर दिए।

कजली गायिका सुंदरी अंग्रेज सेना के छक्‍के छुड़ा देने वाले अपने प्रेमी नागर को याद कर जिंदगी भर आजादी के तराने गाती रही। नागर को कालापानी की सजा होने पर सुंदरी का मानसिक संतुलन बिगड़ गया था। वह गंगा घाट की सीढ़ियों पर बैठ गाती रहती थी, 'सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा, नागर नैया जाला कालेपनियां रे।'

तिरंगी बर्फी भी बनी थी हथियार

मन को भाने वाली वाराणसी की मिठाई भी जंग-ए-आजादी का इतिहास अपने में समेटे हुए है। महात्‍मा गांधी के नमक आंदोलन के दौर में पहली बार मशहूर राम भंडार में बनी तिरंगी बर्फी को जब लोग हाथों में लिए घूमते तो पता चल जाता था कि आजादी के दीवानों की फौज है। अंग्रेजों के दमन के बावजूद तिरंगी बर्फी घर-घर पहुंचने से तिरंगा फहर गया था।
 

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