‘साढ़े तीन हवेली’ में सिमटा है बनारस का इतिहास, राजाओं की शान और शौकत का है प्रमाण, जानिए इनके बारे में...
बनारस अउर साढे़ तीन हवेली! इ बात केहूं के भी अचरज में डाल सकेला। लेकिन इहय अचरज बनारस क असली रज हौ, राज हौ। इ रज अउर राज क आजतक केव थाह नाहीं लगाइ पइलस।
- सरोज कुमार, वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी। दुनिया के सबसे पुराने शहर कहे जाने वाले शहर बनारस को ‘साढ़े तीन हवेली का शहर’ भी कहते हैं। यह अपने आप में एक रहस्य भी है। जहां चौरासी घाट, हजारों की संख्या में मंदिर और गलियां, कई महल-महाल और कई किले मौजूद हैं। यहां के गलियों में कई रहस्य छिपे पड़े हैं। वहीँ इन्हीं रहस्यों में से एक रहस्य ‘साढ़े तीन हवेली’ का भी है। अब विचारणीय यह है कि इतने बड़े शहर में जहां ढेरों किले और हवेलियां मौजूद हैं। वहां साढ़े तीन हवेली क्या है? इसमें खास बात यह है कि हवेली की गिनती भले ही तीन हो, लेकिन इनकी गिनती चार है। जी हां, आज हम इसी हवेली के बारे में बात करने वाले हैं। आगे इसके बारे में बात करेंगे। लेकिन इससे पहले यह जानना आवश्यक है कि साढ़े तीन हवेली का अर्थ क्या है?
हवेली से तात्पर्य ऐसे भवन से है, जहां सभी प्रकार की सुख सुविधाएं मौजूद हों। जहां निवास कर रहे लोगों को किसी भी कार्य से हवेली से बाहर न जाना पड़े। बता दें कि हवेली का कांसेप्ट काफी पुराना है। यहां के सुख सुविधाओं की तुलना आज के समय से नहीं की जा सकती। हवेली के भीतर कई कमरे, आंगन, बरामदा, इसके साथ ही पशुओं के लिए जगह, कुंआ, दीवानखाना, तहखाना और हवादार झरोखे (खिडकियां) मौजूद होते हैं। बनारस में आज भी ऐसी कई हवेलियां आज भी मौजूद हैं। इनमें देवकीनंदन हवेली, कंगन वाली हवेली, कश्मीरीमल हवेली, भदैनी हवेली, विश्वम्भर दास की हवेली, पांडेय हवेली शामिल हैं। पांडेय हवेली की बात की जाय, तो इसके नाम से पूरा के मोहल्ला ही है। लेकिन बनारस के साढ़े तीन हवेली में इसका कहीं जिक्र नहीं है।
देवकीनंदन हवेली
जिन चार हवेलीयों को साढ़े तीन गिना जाता है, उनमें देवकीनंदन की हवेली, कंगन वाली हवेली, काठ वाली हवेली और कश्मीरीमल की हवेली हैं। चार को साढ़े तीन क्यों गिना जाता है, चार में आधी कौन सी हवेली है, बाकी हवेलियों को हवेली क्यों नहीं मानी गई। इसका जवाब आजतक खाटी से खाटी बनारसी भी नहीं दे पाए। बहरहाल, अब साढे़ तीन हवेली पर आते हैं।
बनारस में देवकीनंदन की हवेली सबसे प्रमुख है। स्थानीय लोगों के मुताबिक, रामापुरा क्षेत्र में मौजूद इस हवेली का निर्माण आज से लगभग 150 वर्ष पहले प्रयागराज के जमींदार देवकीनंदन खत्री ने कराया था। अंग्रेजों ने बाबू देवकीनंदन को रामापुरा क्षेत्र की जिम्मेदारी सौंपी तो वे काशी आकर यहीं आकर रहने लगे। और उन्होंने इस हवेली का निर्माण कराया।
दस बीघा जमीन पर पत्थरों से बनी यह हवेली विशेष रूप से भारतीय स्थापत्य कला का नमूना है। हवेली का मुख्य दरवाजा अत्यंत विशाल है। साथ ही उसपर अत्यंत सुन्दर चित्रकारी की गई है। पांच मंजिला हवेली में कई बरामदे और आंगन हैं। हवेली के हर मंजिल पर चारों ओर हवादार और रोशनी वाले कमरे हैं। कहा जाता है कि उसी समय इंग्लैंड से तीन लिफ्ट भारत आई थी। जिसमें से एक लिफ्ट काशी में लगाने की योजना थी। बाबू देवकीनंदन उस लिफ्ट को अपनी हवेली में लगाना चाहते थे। किसी कारणवश उन्हें यह लिफ्ट नहीं मिल पाई। इस घटना का उन्हें इतना दुःख हुआ कि वे इस हवेली में फिर कभी रहने ही नहीं आए। हवेली उपेक्षित है, लेकिन इसका खंडहर आज भी इसके बुलंदी का अहसास कराता है।
कंगन वाली हवेली
हवेलियों की कड़ी में दूसरी हवेली पंचगंगा घाट स्थित कंगन वाली हवेली है। यह हवेली भी पांच मंजिला है। इसका निर्माण आज से लगभग 500 वर्ष पहले राजा मानसिंह ने कराया था। पत्थरों से बनी इस हवेली में चार बड़े – बड़े आंगन और चारों ओर आंगनों से लगे 20 बड़े-बड़े बरामदे हैं। बरामदों से लगे कुल 48 कमरे हैं। कमरों की बनावट कुछ इस तरह से हैं कि दिनभर इनके झरोखों से हवाएं आती रहती हैं और सूर्यास्त होने तक इन कमरों में रोशनी रहती है।
इस हवेली की खासियत यह है कि इसे मुख्य दरवाजे की ओर से देखने पर इसकी केवल एक मंजिल दिखाई पड़ती है। वहीं गंगा घाट की ओर देखने पर इसकी पांच मंजिलें दिखाई पड़ती हैं। कुछ लोगों के अनुसार इसी विशेषता के कारण इसे आधी हवेली भी माना जाता है। लेकिन इसका कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। राजा मानसिंह ने यह हवेली बाद में रामगोपाल गोस्वामी को दान कर दी थी। आज भी उनके वंशज यहां रहते हैं। लेकिन इसकी भी हालत अब ठीक नहीं है।
काठ की हवेली
पंचगंगा घाट अंदर की ओर कुछ दूरी पर चौखम्भा में एक और हवेली स्थित है। जिसे ‘काठ की हवेली’ के नाम से भी जाना जाता है। इसका निर्माण ग्वालियर राजघराने ने कराया था। किवदंतियों के अनुसार, किसी ज्योतिषी ने राजा को लकड़ी के घर में निवास करने की सलाह दी थी। काठ वाली हवेली के मुख्य दरवाजे से लेकर भीतर के सभी दीवार लकड़ी से बनाए गए हैं। हवेली बनाने में काफी समय लगा था। क्योंकि काशी के संकरी गलियों में लकडियां पहुँचाना आसान नहीं था। लकड़ी की यह आलिशान हवेली पांच मंजिलों की है। कुछ लोग काठ की हवेली को भी आधी मानते हैं। क्योंकि यह आकार में अत्यंत छोटी है। इस हवेली को देखने के लिए भी लोग दूर-दूर से आते हैं।
कश्मीरीमल की हवेली
साढ़े तीन हवेली की आखिरी कड़ी ‘कश्मीरीमल की हवेली’ काशी के सिद्धेश्वरी मोहल्ले में स्थित है। इसका निर्माण कश्मीरीमल नाम के एक रईस ने सन् 1774 ईस्वी के आसपास कराया था। यह हवेली भी काफी पुरानी है। और यह दो हिस्सों में है। हवेली के भीतर दीवानखाना, बरामदा और तहखाने शानदार हैं। किन्तु आज भी यह उपेक्षा के शिकार हैं।
यह बात अलग है कि आज आधुनिकता के दौर में बड़ी – बड़ी इमारतों के आगे पुरानी हवेली की बात उतनी नहीं होती। लेकिन यदि काशी की प्राचीनता को बचाना है, तो इनकी पुरानी इमारतों को बचाना होगा। अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब सरकारें इन धरोहरों को को गिराकर नई इमारतें बनवा देंगी। फिर जो नई काशी बनेगी, उसमें वह पुरानी भव्यता नहीं रह जाएगी। जिसे देखने के लिए लोग विदेशों से आते हैं। केवल साढ़े तीन हवेली ही नहीं, यहां जितनी प्राचीन धरोहरें हैं, उनका बचाव अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि पुरानी धरोहरों, सभ्यताओं, अल्हड़पन में ही असली मदमस्त बनारस है।
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