भारत में पहली बार गौरैया के जीनोम की सफल सीक्वेंसिंग, बीएचयू और ZSI समेत कई संस्थानों की उपलब्धि

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वाराणसी। भारतीय आंगनों की प्रिय और कभी आम दिखने वाली गौरैया (हाउस स्पैरो) के जीनोम का पहली बार भारत में सफलतापूर्वक सीक्वेंस और असेंबली किया गया है। यह ऐतिहासिक उपलब्धि काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू), मणिपाल विश्वविद्यालय जयपुर, जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ZSI) कोलकाता और अन्य संस्थानों के वैज्ञानिकों के साझा प्रयास से हासिल हुई है। इस महत्वपूर्ण शोध को अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका GigaByte में प्रकाशित किया गया है, जो इसे वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय में मान्यता दिलाता है।

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प्रो. प्रशांत सुरवज्हाला और प्रो. ज्ञानेश्वर चौबे के नेतृत्व में इस परियोजना में नेक्स्ट जनरेशन सीक्वेंसिंग तकनीकों और उन्नत जीनोमिक वर्कफ़्लो का प्रयोग करके 922 मेगाबेस का एक रेफरेंस जीनोम तैयार किया गया। यह जीनोम 268,193 कॉन्टिग बेस से बना है, जिसमें गौरैया का जीनोम मुर्गी और ज़ेब्रा फिंच के जीनोम से कई आनुवंशिक समानताएं रखता है।

शोध के दौरान वैज्ञानिकों ने गौरैया के सर्कैडियन रिदम (जैविक घड़ी), रोग प्रतिरोधक क्षमता और ऑक्सीजन के परिवहन से जुड़े जीनों की पहचान की है, जो इसके विभिन्न पर्यावरणों में अनुकूलन क्षमता को दर्शाते हैं। गौरैया एक वैश्विक रूप से वितरित प्रजाति है, लेकिन बीते वर्षों में इसकी संख्या में भारी गिरावट देखी गई है। 

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पेरिस जैसे शहरों में इसकी आबादी में 89% तक की कमी आई है, वहीं भारत के मुंबई और बेंगलुरु जैसे शहरों में 70% से अधिक की गिरावट दर्ज की गई है। वैज्ञानिकों ने इस गिरावट के लिए शहरीकरण, प्राकृतिक आवास की हानि और पर्यावरणीय परिवर्तन जैसे कारकों को जिम्मेदार माना है। जीनोमिक डेटा के विश्लेषण से 'आली इफेक्ट' का भी पता चला है, जिसमें कम जनसंख्या घनत्व से प्रजातियों की व्यक्तिगत फिटनेस प्रभावित होती है।

प्रो. ज्ञानेश्वर चौबे ने माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए जीनोम विश्लेषण के आधार पर बताया कि गौरैया, जिसे पैसरिडी परिवार में रखा गया है, की उत्पत्ति विश्व में लगभग 90 लाख वर्ष पूर्व हुई थी। वहीं, घरेलू गौरैया (Passer domesticus) लगभग 30 लाख वर्ष पूर्व यूरेशियन ट्री स्पैरो से अलग हो गई थी। शोध के पहले लेखक और ZSI कोलकाता के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. विकास कुमार ने बताया कि डीएनए के फाइलोजेनेटिक विश्लेषण से यह भी स्पष्ट हुआ है कि भारतीय गौरैया यूरेशियन ट्री स्पैरो और सक्सौल स्पैरो से लगभग 44 लाख वर्ष पूर्व विभाजित हो गई थी। यह शोध न केवल गौरैया के विकास की टाइमलाइन को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करता है, बल्कि इसके संरक्षण के प्रयासों के लिए भी वैज्ञानिक आधार उपलब्ध कराता है।

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