संकटमोचन संगीत समारोह में शिवमणि, यू. राजेश और मिश्रबंधुओं की जुगलबंदी ने रच दिया सुरों का संगम

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वाराणसी। संकटमोचन संगीत समारोह की तीसरी निशा ने श्रोताओं को ऐसी संगीतमय अनुभूति दी, जिसे शब्दों में पिरोना कठिन है। एक ही मंच पर उत्तर, दक्षिण और पश्चिम की संगीत शैलियों का अद्भुत संगम देखने को मिला, जब तीन कलाकार—ड्रमर पद्मश्री शिवमणि, मेंडोलिन वादक यू. राजेश और पखावज वादक प्रो. विश्वम्भरनाथ मिश्र—ने साथ मिलकर ऐसा फ्यूजन प्रस्तुत किया जिसने दिशाओं के भेद को मिटा दिया।

संकटमोचन संगीत समारोह में शिवमणि, यू. राजेश और मिश्रबंधुओं की जुगलबंदी ने रच दिया सुरों का संगम

यह त्रिवेणी संगम वाद्ययंत्रों का नहीं, भावों और सुरों का था। ड्रम और मेंडोलिन जैसे पश्चिमी वाद्ययंत्र जब दक्षिण भारत की पखावज के साथ बजने लगे तो मंच पर संगीतमयी एकता की मिसाल कायम हो गई। वादन की शुरुआत पखावज के घुंघरुओं की झनकार और वैदिक मंत्रों की गूंज से हुई। इसी बीच शिवमणि द्वारा शंखध्वनि ने वातावरण को आध्यात्मिक बना दिया।

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शास्त्रीय रागों और तालों से आरंभ हुआ यह कार्यक्रम धीरे-धीरे लोक और पाश्चात्य संगीत की ओर प्रवाहित हुआ। जैसे ही तीनों वाद्ययंत्रों की लहरें एक साथ गूंजीं, श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए। यह संगम गंगा, यमुना, सरस्वती जैसी धाराओं की तरह प्रवाहित होता गया और संगीत संगम का रूप लेता गया।

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प्रस्तुति के दूसरे चरण में शिवमणि की पहचान माने जाने वाले ‘शिवमणि स्टाइल’ की झलक मिली। ड्रम स्टिक को डांडिया की तरह घुमाते हुए उन्होंने लोक धुनों की ऐसी बौछार की कि तालियों की गूंज बढ़ती चली गई। फिर अचानक मंच पर दृश्य बदला और शिवमणि दायां तबला लेकर बैठ गए। बाएं हाथ से दाएं तबले को बजाते हुए उन्होंने दर्शकों को चौंका दिया। इसके बाद स्टील की थाली, कलछी, मंदिर के घड़ियाल, और पानी भरी बाल्टी—हर चीज उनके लिए वाद्ययंत्र बन गई।

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यह प्रयोगवाद और नवाचार का वह रूप था जहां परंपरा और आधुनिकता एकसाथ चल रही थीं। ड्रम से निकलते नाद ने कभी डांडिया, कभी भांगड़ा और कभी दुर्गापूजा के ढोल की याद ताजा कर दी। बनारसी नगाड़ा भी इस संगत में अपनी पहचान बनाए रखने में सफल रहा।

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रात्रि की दूसरी प्रस्तुति में काशी के मिश्रबंधु सौरव-गौरव मिश्रा ने मंच संभाला। दोनों ने कथक के माध्यम से हनुमत अर्चन प्रस्तुत की। उनका नृत्य भाव, रचना और रफ्तार का बेजोड़ मिश्रण था। रुद्रावतार की कथा को नृत्य के माध्यम से जीवंत करना अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण कार्य था, जिसे उन्होंने कुशलता से निभाया।

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बनारस घराने की परंपरा को आमद, तोड़ा, तिहाई, परन और चक्करदार परन से सजाया गया। अभिनय प्रधान देव भजनों की प्रस्तुति में जब मंच पर गुरु पं. रविशंकर मिश्र ने बोल पढ़त करते हुए मार्गदर्शन किया, तब गुरु-शिष्य परंपरा का अनुपम उदाहरण भी देखने को मिला।

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प्रस्तुति इतनी प्रभावशाली रही कि एक समय ऐसा आया जब दीर्घा में बैठे सैकड़ों दर्शक तालियों की ताल पर थिरकते नजर आए और मिश्रबंधु बिना थके, अनवरत नृत्य करते रहे।

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