‘राम इक दिन चंग उड़ाई...’ भगवान राम से जुड़ा है पतंगबाजी का इतिहास, बौद्ध और मुगलों ने भी इसे बनाया अपनी शान 

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वाराणसी। भक्काटे, ये गया काला, खींच मंझा खींच, नक्की कटे न पाये। ढील और ढील। थोड़ा बायें। एकदम दायें लाओ। अरे...रे...रे देख संभल भाई, वो मारा, वो लपेटा, ये काटा-वो काटा-भाक्काटा...। मकर संक्रांति के दिन कुछ ऐसा ही सुनने को मिलेगा शहर में। लोग अपने छत और खाली मैदानों से पतंग उड़ाएंगे। बनारस में इस दिन आसमान भी पतंगों से ढक जाएगा। साल के 364 दिन मोबाइल की स्क्रीन में देखते हुए सिर नीचे किए लोगों के सिर इस दिन आसमान के ओर होंगी। साल में एक दिन लोगों के सिर ऊपर आसमान के ओर होंगे। 

यह एक ऐसा त्योहार है, जो कि ठंड के समय में पड़ता है। लेकिन त्योहार की गरिमा भी ऐसी ही है कि लोगों पर ठंड का कोई असर नहीं होता। सुबह से ही पतंगबाज अपने-अपने छतों पर चढ़कर पतंग उड़ाने में मशगूल हो जाते हैं। वैसे पतंग उड़ाने का इतिहास काफी पुराना है। एक समय त्रेतायुग में भगवान राम ने भी पतंग उड़ाया था। इसका वर्णन रामचरित मानस और उसके बाद बौद्ध और फिर मुगलों ने इस कला को अपनी शान बनाया। 

तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है कि भगवान श्रीराम ने भी पतंग उड़ायी थी। इस प्रकार इस परंपरा का संबंध त्रेतायुग में श्रीराम से भी है। माना जाता है कि प्रभु श्रीराम ने पतंग उड़ाने के परम्परा की नींव डाली थी। धार्मिक मान्यता के अनुसार, श्रीरामचरितमानस में लिखा है-  

‘राम इक दिन चंग उड़ाई। इंद्रलोक में पहुंची जाई।’ 

अर्थात मकर संक्राति के दिन राम ने पतंग उड़ाई तो वह इंद्रलोक पहुंच गई। पतंग देखकर इंद्र के पुत्र जयंत की पत्नी सोचने लगी –

'जासु चंग अस सुन्दरताई। सो पुरुष जग में अधिकाई॥'

अर्थात् जिसकी पतंग इतनी सुंदर है, वह स्वयं कितना सुंदर होगा। राम को देखने की इच्छा के कारण जयंत की पत्नी ने पतंग की डोर तोड़कर पतंग अपने पास रख ली। 

भगवान राम ने हनुमानजी को पतंग ढूंढकर लाने के लिए कहा। हनुमानजी पतंग को ढूढ़ते-ढूढ़ते इंद्रलोक पहुंच गए। जयंत की पत्नी ने कहा कि जब तक वह राम को देखेगी नहीं, पतंग नहीं देगी। हनुमानजी संदेश लेकर राम के पास पहुंच गए। भगवान राम ने कहा कि वनवास के दौरान वे उसे दर्शन देंगे। हनुमानजी से यह आश्वासन पाकर जयंत की पत्नी ने पतंग वापस कर दी। माना जाता है कि इसी परम्परा के तहत लोग मकर संक्रांति पर पतंग उड़ाते हैं और आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंचाने की ललक रखते हैं।

वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार, माना जाता है कि मकर संक्रांति के दिन पतंग उड़ाने से आप सूर्य की किरणों को अधिक मात्रा में ग्रहण करते हैं और शरीर में ऊर्जा आती है और विटामिन डी की कमी पूरी होती है। स्किन से संबंधित बीमारियां नहीं होती हैं। पतंगबाजी के समय दिमाग और शरीर के अन्य भाग-जैसे हाथ का अधिक इस्तेमाल होता है जो एक तरह से शारीरिक और मानसिक व्यायाम करने का मौका भी मिल जाता है। पतंगबाजी सबसे अधिक नौजवान करते हैं। ऐसे में उनके लिए सही माना जाता है। 

पौराणिक मान्यता की मानें तो मकर संक्रांति पर सूर्य देव उत्तरायण हो जाते हैं। इस समय सूर्य की किरणें औषधि का काम करती हैं। इसलिए इस पर्व पर पतंग उड़ाना सेहत के लिए लाभकारी माना जाता हैं। पतंग को खुशी, आजादी और शुभता का संकेत भी माना जाता है। मकर संक्रांति के दिन पतंग उड़ाकर एक-दूसरे को खुशी का संदेश दिया जाता है। मकर संक्रांति पर काशी में पतंगबाजी लोगों, खासकर युवाओं के सिर चढ़कर बोलता है। हर ओर से भाक्काटा, बड़ी नक्ख से कटली गुरु आदि का शोर सुबह से शाम तक फिजाओं में गूंजता है। 

ऐसा लगता है मानो समूचा शहर छतों पर जा चढ़ा हो। डीजे और स्पीकर की धुनों के बीच शहर भर में पतंगबाजी की धूम रहती है। आसमान में धारदार मांझे में बंधी और तनी पंतगों के पेंच लड़ाने का के्रज देखते ही बनता है। एक दूसरे की पतंग को काटने, पेच लड़ाने की होड़ मची रहती। एक कटी नहीं की दूसरी को ‘छोड़इया’ दे दी जाती थी। जैसे ही दूसरे की पतंग कटती, भक्काटे की आवाज गूंज उठती है और कटी पतंग को लूटने के लिए बच्चे पीछे-पीछे दौड़ पड़ते हैं।

देर शाम तक पतंगों की पेंगें चढ़ती हैं परवान...

वैसे तो मकर संक्रांति के एक पखवारे पूर्व से ही आसमान में पतंगों का जलवा दिखने लगता है। लेकिन मकर संक्रांति के दिन नजारा कुछ अलग ही होता है। मकर संक्रांति के दिन खींच मंझा खींच, नक्की कटे न पाये। ढील और ढील। थोड़ा बायें। एकदम दायें लाओ। अरे... रे... रे देख संभल भाई, वो मारा, वो लपेटा, ये काटा-वो काटा-भाक्काटा। वातावरण में ये शब्द गुंजायमान होते है। पतंगबाजों के ये संवाद अलमस्त नगरी में खूब सुनाई देती है। अल सुबह होने से लेकर देर शाम तक पतंगों की पेंगें परवान चढ़ती नजर आती है। 

आसमान में इठलाती-इतराती-बलखाती रंग-बिरंगी अनगिनत पतंगें तितली सी दिखती है और पतंगबाजी का हर खिलाड़ी खुद को तीसमारखां समझता है। क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बूढ़े, सभी इस नजारे में मगन नजर आते हैं। एक से बढ़कर एक पतंग और उससे बड़े पतंगबाज। मकानों की छत हो या खुला मैदान या गंगा पार रेती। हर जगह इनकी टोली मस्ती करती नजर आती है। इंसान में आसमान छूने वाली हौसले की उड़ान का जज्बा अनगिनत पतंगें पैदा करती है।

पतंगबाजी में कौन है माहिर खिलाड़ी?

बहस इस बात की नहीं कि पतंग का अविष्कार कब हुआ था। बहस इस बात की है कि पतंगबाजी का माहिर खिलाड़ी कौन है? निश्चित रूप से पतंगबाजी को लेकर बच्चों में जो उमंग और उत्साह देखने को मिलता है, वह किसी और में नहीं। कटी पतंग को लुटने की खातिर बच्चों की नजर सिर्फ और सिर्फ पतंग पर होती है। दाएं-बाएं, इधर-उधर देखना उनको गंवारा नहीं। कटी पतंग को पाने के लिए वे दूर तक इस कदर दौड़ लगाते हैं कि मिल्खा सिंह या पीटी ऊषा भी फेल हो जाए। जब उनके हाथ पतंग का तुनका लगता है तो उनके चेहरे पर आया भाव किसी विजेता से कम नहीं होता है। फिर कटी पतंग को ‘वो काटा’ कह कर लूटने का मजा ही कुछ और होता है। 

अक्सर पतंग फट जाती है, फिर भी फटी पतंग भी एक शान होती है। कहने का भाव यह कि हाथों में पेड़ की टहनियां लिए, उड़ती पतंगों पर टकटकी लगाए, मानो दुआ कर रहे हो कब कटेगी और फिर पूरी सड़क, गली, कूचा और मैदान नाप लेते हैं। शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसने बचपन में पतंग नहीं उड़ाई होगी। और हममें से बहुत ऐसे होंगे, जो आज भी पतंग उड़ाने के लिए लालायित नजर आते हैं। मकर संक्रांति के दिन तो समूची काशी पतंगबाज नजर आती है। पतंगबाजी लोगों के सिर चढ़कर बोलती है। पेंच लड़ाने का क्रेज देखते ही बनता है। 

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