पितृपक्ष का आरंभ, सोमवार को प्रतिपदा का श्राद्ध, पितरों की शांति को तर्पण को घाटों पर पहुंचे लोग
वाराणसी। सनातन परंपराओं और शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार पितृपक्ष का विशेष महत्व है। इस वर्ष पितृपक्ष 7 सितंबर भाद्रपद पूर्णिमा से प्रारंभ होकर 21 सितंबर आश्विन अमावस्या तक रहेगा। हालांकि शास्त्रीय गणना के अनुसार आश्विन कृष्ण प्रतिपदा तिथि 7 सितंबर की रात 11:47 बजे से 8 सितंबर रात 10:15 बजे तक रहेगी, इसलिए प्रतिपदा श्राद्ध 8 सितंबर को किया जाएगा। इसी के साथ पितृपक्ष की विधिवत शुरुआत होगी और 21 सितंबर को सर्वपितृ अमावस्या पर पितृ विसर्जन सम्पन्न होगा।

पितरों के निमित्त श्रद्धा से किया गया कर्म ही श्राद्ध
धार्मिक मान्यता है कि पितृपक्ष में पितर धरती पर अवतरित होते हैं और 15 दिनों तक अपने वंशजों से तर्पण एवं श्राद्ध की अपेक्षा करते हैं। इन्हीं कर्मों से पितरों की तृप्ति होती है। “श्रद्धयां इदम् श्राद्धम्” अर्थात श्रद्धा से किए गए कर्म को ही श्राद्ध कहा गया है। इस दौरान गंगा तट, विशेषकर पिशाचमोचन पर, बड़ी संख्या में लोग तर्पण और श्राद्ध करते हैं।

अस्सी घाट स्थित तीर्थ पुरोहित बटुक महाराज ने बताया कि सनातन धर्म में किसी मास का पखवाड़ा उदयातिथि से प्रारंभ होता है और श्राद्ध का समय मध्याह्न ही श्रेष्ठ माना गया है। इसलिए पूर्णिमा का श्राद्ध 7 सितंबर को और प्रतिपदा का श्राद्ध 8 सितंबर को होगा।

विशेष तिथियां और श्राद्ध विधान
इस बार पितृपक्ष 14 दिनों का होगा क्योंकि आश्विन कृष्ण पक्ष में नवमी तिथि की हानि है।
• पंचमी और षष्ठी श्राद्ध: 12 सितंबर को।
• मातृ नवमी: 15 सितंबर को, इस दिन माता की मृत्यु तिथि अज्ञात होने पर और सौभाग्यवती स्त्रियों का श्राद्ध किया जाता है।
• एकादशी श्राद्ध: 17 सितंबर को, जिसे इंद्रा एकादशी व्रत सहित मनाया जाएगा।
• द्वादशी श्राद्ध: 18 सितंबर को, इस दिन संन्यासी, यति और वैष्णवजन का श्राद्ध होता है।
• चतुर्दशी श्राद्ध: 20 सितंबर को, दुर्घटनावश मृत व्यक्तियों का श्राद्ध किया जाता है।
• सर्वपितृ अमावस्या: 21 सितंबर को, इस दिन उन सभी पूर्वजों का श्राद्ध होता है जिनकी मृत्यु तिथि ज्ञात न हो या किसी कारणवश नियत तिथि पर श्राद्ध न हो पाया हो।
• पितृ विसर्जन की रात घर के मुख्य द्वार पर दीपक जलाकर पितरों को विदाई दी जाती है।

पितृ ऋण से मुक्ति का मार्ग
शास्त्रों में कहा गया है कि पितर यदि श्राद्ध और तर्पण न पाकर असंतुष्ट रह जाएं तो वे वंशजों को श्राप देकर लौट जाते हैं। किंतु जल, तिल, यव, कुश, पुष्प आदि से किया गया तर्पण और ब्राह्मणों को भोजन कराने से पितर प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं। यह सरल कर्म पितृ ऋण से मुक्ति दिलाता है। विशेष उल्लेख है कि यदि किसी स्त्री का पुत्र न हो तो वह स्वयं भी अपने पति का श्राद्ध उसकी मृत्यु तिथि पर कर सकती है। पितृपक्ष का यह पखवाड़ा हर सनातनी के लिए अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा व्यक्त करने का पावन अवसर है।


