12 वर्षों में 65,000 से अधिक लावारिस शवों का कराया अंतिम संस्कार, पिता की प्रेरणा से शुरू हुआ सेवा का सफर 

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वाराणसी। धर्म नगरी काशी को मोक्ष की भूमि कहा जाता है, जहां लाखों श्रद्धालु जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचकर मुक्ति की कामना करते हैं। परंतु इसी काशी में कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें न तो अपना कहने वाला होता है और न ही अंतिम संस्कार करने वाला। ऐसे लावारिस मृतकों के लिए पिछले 12 वर्षों से एक मसीहा बनकर सामने आए हैं नित्यानंद तिवारी। पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट नित्यानंद अब तक 66,000 से अधिक लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर उन्हें सम्मानपूर्वक विदाई दे चुके हैं।

मां की पुण्यतिथि और पिता की प्रेरणा बनी शुरुआत
इस अनोखी सेवा की शुरुआत वर्ष 2013 में हुई थी। नित्यानंद तिवारी बताते हैं कि 13 सितंबर 2013 को उनकी मां की पुण्यतिथि थी। उस दिन वे अपने पिता के साथ हरिश्चंद्र घाट जा रहे थे, तभी रास्ते में उन्होंने देखा कि एक शव बोरे में बंधा हुआ रिक्शे पर ले जाया जा रहा है। उन्होंने रुककर पूछा तो बताया गया कि यह एक लावारिस शव है। यह दृश्य उन्हें विचलित कर गया। उनके पिता ने उसी समय कहा कि इस शव का अंतिम संस्कार कराया जाना चाहिए, और दोनों ने मिलकर उस शव को हरिश्चंद्र घाट पहुंचाया और अंतिम संस्कार कराया। एक माह बाद उनके पिता का भी देहांत हो गया। नित्यानंद ने अपने पिता की इस इच्छा को जीवन का संकल्प बना लिया। तभी से उन्होंने इस सेवा कार्य को एक अभियान के रूप में शुरू किया, जो आज भी लगातार जारी है।

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हर शव पर मात्र 1150 रुपये, दिल से की जाती है सेवा
नित्यानंद तिवारी बताते हैं कि वे हर लावारिस शव का अंतिम संस्कार लगभग 1150 रुपये में करते हैं। इस रकम में लकड़ी, कफन, बांस की सीढ़ी और अन्य आवश्यक सामग्री शामिल होती है। उन्होंने बताया कि जब उन्होंने पहली बार यह सेवा शुरू की, तो हरिश्चंद्र घाट के डोम चौधरी परिवार ने पैसे लेने से इनकार कर दिया था। लेकिन उन्होंने 1100 रुपये दक्षिणा स्वरूप में देकर यह सेवा आरंभ की। वे करीब 66,000 शवों का अंतिम संस्कार कर चुके हैं, जिसमें कुल खर्च लगभग 6 करोड़ रुपये से अधिक का हुआ है। यह राशि वे अपनी पेशेवर आमदनी में से निकालते हैं। उनका कहना है कि उनके दोनों बेटे भी चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं और इस सेवा कार्य में उनका साथ देते हैं।

तीन सदस्यीय टीम और राजकली महिला कल्याण समिति
नित्यानंद तिवारी ने अपनी मां के नाम पर “राजकली महिला कल्याण समिति” की स्थापना की है, जिसके तहत वे यह कार्य संचालित करते हैं। उनकी एक तीन सदस्यीय समर्पित टीम है, जो हर दिन उनके साथ लावारिस शवों की खोज, उठान और अंतिम संस्कार की प्रक्रिया में जुटी रहती है।

वाराणसी के हर थाने में उनका नंबर मौजूद है, जहां से पुलिस प्रशासन उन्हें लावारिस शवों के लिए फोन करता है। नित्यानंद बताते हैं कि एक दिन में सबसे कम दो और अधिकतम 20 शव उनके पास आते हैं। वे केवल लावारिस शवों का ही नहीं, बल्कि उन शवों का भी अंतिम संस्कार करते हैं जिनके परिजनों के पास पैसे नहीं होते।


डोम राजा परिवार भी बना सहयोगी
हरिश्चंद्र घाट के डोम राजा परिवार के सदस्य महेंद्र चौधरी भी इस मिशन में नित्यानंद तिवारी का तन-मन-धन से साथ दे रहे हैं। महेंद्र चौधरी कहते हैं कि जब नित्यानंद जी ने पहली बार लावारिस शव के अंतिम संस्कार की बात की, तो उन्हें यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि कोई चार्टर्ड अकाउंटेंट ऐसा पुनीत कार्य कर रहा है। तभी से वे इस मुहिम में उनके साथ हैं।

महेंद्र बताते हैं कि आमतौर पर एक शव के अंतिम संस्कार पर 7-8000 रुपये तक खर्च होता है, लेकिन नित्यानंद जी मात्र 1150 रुपये में यह सेवा कर देते हैं। उसमें 1000 रुपये लकड़ी, 100 रुपये सीढ़ी और 50 रुपये कफन का खर्च शामिल है। वे कहते हैं कि जैसे ही नित्यानंद तिवारी को पुलिस थानों से फोन आता है, वह शवों को घाट तक पहुंचाने और विधिपूर्वक अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी संभाल लेते हैं।

शवों को मानते हैं अपने पिता, सेवा में पाते हैं आत्मिक संतोष
नित्यानंद तिवारी कहते हैं कि वे हर शव को अपने पिता के रूप में देखते हैं। उनका मानना है कि जैसे लोग अपने माता-पिता के इलाज पर लाखों रुपये खर्च करते हैं, वैसे ही वे हर दिन अपने दिवंगत पिता की सेवा के रूप में इन शवों का अंतिम संस्कार करते हैं।

वे कहते हैं, “जिस दिन शव ज्यादा आते हैं, मैं सोचता हूं कि आज पिताजी की बड़ी जांच होनी है। और जब कम शव आते हैं, तो लगता है कि आज उनके स्वास्थ्य में सुधार है।” यह भाव उन्हें उस आत्मिक जुड़ाव से भर देता है जो किसी सांसारिक लाभ से कहीं ऊपर है।
 

चंदौली, भदोही, गाजीपुर से भी आते हैं शव
अब नित्यानंद तिवारी की पहचान बनारस से निकलकर आसपास के जिलों तक फैल चुकी है। चंदौली, भदोही, गाजीपुर जैसे जिलों से भी लावारिस या असहाय शवों के लिए उन्हें फोन आता है। वे निःस्वार्थ भाव से हर बार इस सेवा को निभाने निकल पड़ते हैं।

प्रशासनिक सहयोग, लेकिन अभी भी चुनौतियां
हालांकि प्रशासनिक स्तर पर पुलिस और नगर निगम से सहयोग प्राप्त होता है, लेकिन कई बार संसाधनों की कमी, तकनीकी बाधाएं और ट्रांसपोर्ट की समस्या सामने आती है। फिर भी नित्यानंद और उनकी टीम हर परिस्थिति में अपने सेवा संकल्प से पीछे नहीं हटती।
वे कहते हैं कि अगर भविष्य में उन्हें अधिक सहयोग और संसाधन मिलें, तो वे इस सेवा को और विस्तारित कर सकते हैं।

जीवन का ध्येय – अंतिम सांस तक सेवा
नित्यानंद तिवारी का कहना है कि यह सेवा अब उनका धर्म बन चुकी है। वे जीवन के अंतिम दिन तक इसे निभाना चाहते हैं। उनका सपना है कि एक दिन कोई लावारिस शव ऐसा न बचे, जिसे सम्मानपूर्वक विदाई न मिले। वे समाज से अपील करते हैं कि यदि कोई व्यक्ति संसाधनों के अभाव में अपने परिजन का अंतिम संस्कार नहीं कर पा रहा है, तो निसंकोच उनसे संपर्क करे। वे न केवल लावारिस, बल्कि असहाय जनों के अंतिम संस्कार में भी सहयोग देते हैं।

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